ग्राम स्वराज्य पर यह विशेषांक मोहन हिराबाई हिरालाल और उनके काम को समर्पित है. इस अंक का स्वरूप जरा अलग है. हमारे मित्र सोपान जोशी से बातचीत के दौरान यह लगा कि इस विषय पर महाराष्ट्र के बाहर के अनुभव भी इसमें शामिल होने चाहिए. वही बात आगे बढ़ी और यह तय हुआ कि हिंदी के लेख भी होने चाहिए. इन प्रयत्नों की वजह से इस अंक को तैयार करने में अधिक समय लगा. अप्रैल में प्रकाशित होने वाला अंक अब आ रहा है. इस देरी के लिए हम अपने पाठकों की क्षमा चाहते हैं.
स्वतंत्रता के मूल में अपने निर्णय खुद लेने का अधिकार है. इसे व्यक्तिगत भी मान सकते हैं और सामाजिक भी. जो स्वतंत्रता चाहते हैं वे उसकी कीमत कठिनाई से भी चुकाने के लिए तैयार रहते हैं. दक्षिणपूर्व एशिया के पहाड़ी समुदायों ने सदियों तक सभी राज्यों से दूरी इसीलिए बनाए रखी. भारत के कई आदिवासी समाजों में भी यह झलकता है. इन लोगों ने जान-बूझ कर दुविधा वाले कठिन स्थानों में रहना चुना, पर अपनी स्वायत्तता नहीं छोड़ी. पहाड़ों की दुर्गम ऊँचाइयाँ, रेगिस्तान की विषम भूमि, या जंगलों का अभेद्य एकांत… इन सभी ने सभ्यताओं को राजसत्ता से बचाया है.
सुविधाओं पर निर्भरता नागर जीवन को स्वतंत्रता से दूर ले जाती है. नागर जीवन हमें नागरिकता देता है, राज्य की दृष्टि देता है, जो हमारे शहरी नियोजन में दिखती है. जहाँ स्थानीय ज्ञान और सामाजिक पद्धतियों को नजरअंदाज कर के एकरूपता थोपी जाती है. सक्रिय मुहल्ला समितियाँ, नगर निगम और सच्चा प्रतिनिधित्व नागर जीवन में स्वतंत्रता के तरीके ला सकते हैं. शायद इसीलिए ये राज्य को भाते नहीं!
राज्य साधारण लोगों को ठीक निर्णय लेने में अयोग्य मानता है, फिर चाहे वह राज्य लोकतांत्रिक ही क्यों न हो. राज्य का अस्तित्व सत्ता के केंद्रीयकरण से है. इसीलिए राज्य साधारण लोगों पर विश्वास नहीं करते, धौंस जमाने के लिए किराये के विशेषज्ञों की आड़ लेते हैं. विकेंद्रित स्वतंत्रता से राज्य की आँख में किरकिरी होती है. आज के कई बड़े संकटों का मूल कारण इसी में है. स्थानीय ज्ञान के प्रति सम्मान का अभाव हमें महँगा पड़ता है. यही वजह है कि विशेषज्ञों के बनाये विकास के मॉडल विफल होते हैं, स्थानीय समाधान बहुत बार टिकाऊ होते हैं.
ग्राम स्वराज केवल कोई पुरातन विचार नहीं, बल्कि हमारे भविष्य को सच्ची-सरल दिशा देने का साधन है. हमारे खेतिहर-आदिवासी समाजों ने अपनी स्वाधीनता छोड़ने कि बजाय जैसे कभी थोड़ी कठिनाईयों को अपनाया, वैसे ही आज हमें अपने गाँवों और शहरों की स्वायत्तता बचानी होगी. इसके बिना हम ऊपर से आयी हुकूमत अपने आप पर थोपते रहेंगे. जहाँ स्थानीय लोगों के पास अपने भविष्य पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, वहाँ न तो सच्चा लोकतंत्र है और न हमारे कल्याण का मंत्र-यंत्र ही.
ये अंक ज्यादा से ज्यादा लोगों तक आपके सहयोग से ही पहुँच सकेगा. बातचीत आगे बढ़े इसके लिए हमें आपके संदेशों के इंतजार है.
समन्वयक
आजचा सुधारक