‘ग्राम स्वराज’ और उससे जुड़ी शब्दावली वहाँ नहीं मिलती. फिर भी पीढ़ियों से राज-समाज, आस्था-व्यवस्था के जिन तरीकों पर झारखंड के कई समाज चलते आ रहे हैं, उनमें इस विचार की बहुत पुरानी समझ है. समय ने करवट जरूर ली है. इसके मायने बदले. महत्त्व, मान्यताएँ, रीतियाँ, नीतियाँ, प्रणालियाँ बदलीं. गांधी ने कोशिश की कि समाज अपने मूल में रह कर ही विकास करे. सभी गाँवों की अपनी आस्था हो, अपनी व्यवस्था भी. यह कायम रह न सका. अब हम नारों में, सिद्धांतों में, कानून में ग्राम स्वराज को बताना चाहते हैं, लागू करना चाहते हैं. किंतु किसी मान्यता को कानून से लागू करने में और उसके स्वाभाविक तौर पर आत्मसात होने में फर्क होता है. झारखंड में एक दशक में कुछ जगहों की यात्रा करते हुए निराला बिदेसिया ने इस बात को करीब से महसूस किया. उनका आँखों देखा हाल पढ़िए.
बात संभवत: २००३-०४ की है. रांची नगर नवनिर्मित राज्य झारखंड की राजधानी बन चुका था, पर राजधानी वाला आव-ताव और भाव आना अभी बाकी था. मुझे रांची आये ज्यादा दिन नहीं हुए थे, शायद साल भर भी नहीं. इतने से ही खुश होता था कि रांची में मेरे घर से दफ्तर जाने के तीन रास्ते जान गया था. वरना छह महीने तक एक ही रास्ता मालूम था!
अगर मन रास्तों में ही उलझा रहे, तो जाहिर है कि हासा-भाषा, संस्कृति-राजनीति, दर्शन-जीवन के ककहरा का क-ख-ग… भी नहीं समझ सका था. संयोग से उन्हीं दिनों संत हृदय कार्यकर्ता और लेखक अनुपम मिश्र का रांची आना हुआ. उनसे मिलने गया. उनके साथ यह पहली मुलाकात थी. इसके पहले ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ चुका था. बात चली, तो उन्होंने पूछा कि यहीं के हो?
कहा, नहीं.
कितने दिनों से हो यहाँ? उन्होंने पूछा.
बताया, लगभग साल भर.
अनुपमजी ने कहा कि कम-से-कम कुछ सालों तक रांची में ही रहने की कोशिश करना. अवसर तो मिलेंगे दूसरी जगह के भी. किंतु अगर थोड़ा राज, समाज, संस्कृति को समझना चाहते हो, इस देश की माटी-पानी को समझना चाहते हो, तो कुछ साल रह कर देखो झारखंड. देखने से ज्यादा समझने की कोशिश करो. झारखंड को समझने के लिए अतिरिक्त बौद्धिकता और विद्वता की जरूरत नहीं पड़ेगी. सहज भाव से सिर्फ जीवन दर्शन देखना. हाँ, झारखंड का मतलब रांची भर नहीं रखना. जब समय मिले, जितना संभव हो, राज्य में घूमना, देखना. किताबों से ज्यादा यहाँ के लोगों से मिलकर सीखने को मिलेगा.
उन्हें वादा नहीं किया था. पर अनुपमजी को सुनना अच्छा लग रहा था. उनकी हिदायत की बारिश से अंतर्मन तर-ब-तर हो रहा था. यह पक्के तौर पर नहीं कह सकता, पर यह बार-बार लगता है कि उनसे हुई मुलाकात का ही यह असर था कि मैं झारखंड में रूक गया, वहीं रह गया.
जब सही में राजा चुना हुआ हो
अनुपम जी ने कहा था कि यहाँ के आदिवासियों के राजाओं का जीवन ध्यान से देखना. कहीं कोई महल नहीं मिलेगा, लाव-लश्कर भी नहीं. वे पद से राजा हैं, पर व्यवस्था और समाज चलाने के लिए. उस रोज उन्होंने एक बात कही, जिसका कोई लिखित या ऐतिहासिक प्रमाण उनके पास नहीं था. बस उन्होंने कहीं सुना था कि पहले के समय यहाँ राजा चुनने का खास तरीका होता था. घोषणा की जाती थी कि फलाँ दिन, फलाँ इलाके में मेला लगने वाला है, जिसमें अमुक इलाके के राजा का चयन होगा. इसका ऐलान गाँव-गाँव में नगाड़े की थाप पर होता था, ताकि हर किसी को पता चल सके. जो भी राजा बनना चाहे वह भाग ले सके.
मेले में चारों ओर लोग रहते. सभी प्रत्याशियों को एक तरफ बिठाया जाता. एक-एक कर सबकी आँख पर पट्टी बाँधी जाती. फिर उनके सामने कुछ मिट्टी, कुछ बर्तन में पानी, कुछ पत्ते और कुछ लकड़ियाँ रखी जातीं. भाग लेने वालों को मिट्टी सूँघ के बताना होता था कि किस गाँव के किसी इलाके की मिट्टी है. उन्हें पानी चख कर बताना होता था कि किस कुएँ या नदी या तालाब का पानी है. पत्ते और लकड़ी को छूकर, उसकी महक से बताना होता कि किस पौधे का पत्ता या लकड़ी है. जो ऐसा करने में सक्षम होते, वही राजा बनते. यानी राजा वही बनता जो माटी, पानी, पेड़ और पौधे को जान पाता, पहचान पाता.
अनुपमजी के पास इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं था, यह उन्होंने साफ कर दिया था. लेकिन इतना तो पता ही है कि वाच्य परंपरा से जानी हुई जिन बातों को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में लिखा, वह सब इतिहास ही है.
बुद्ध से नया परिचय
संयोग से कुछ महीने बाद ही एक अनूठे व्यक्ति से मुलाकात हुई. मनराखन किस्कू सरकारी नौकरी से रिटायर हो के रांची में अपने घर पर रहते थे. सुनने की क्षमता कम हो गयी थी, मशीन लगाते थे, तेज बोलने पर ही सुन पाते थे. उनके घर बतकही होने लगी. उन्होंने अपना पूरा जीवन बुद्ध और आदिवासी जीवन का संबंध समझने में लगा दिया था. मैं गया था उनका इंटरव्यू लेने, पर हुआ उलटा – वे ही सवाल पूछने लगे. क्या इटखोरी गये हो?, उन्होंने पूछा. मैं कभी नहीं गया था, केवल नाम सुना था. उन्होंने कहा, हजारीबाग जिले में जो अब मां भद्रकाली मंदिर की वजह से राज्य भर में चर्चित इटखोरी है, उसका नाम है इत्तखोयी है, यानी ‘यहीं से खोया’. बुद्ध अपने घर से निकले तो पहले वहीं आये ध्यानस्थ होने. उनकी मौसी वहाँ तक खोजते हुए आ गयी. बुद्ध वहाँ से निकल जंगल के रास्ते पास के ही बोधगया में चले गये. मौसी ने कहा, इत्तखोयी… यानी यहीं से खोया मेरा लाल.
उनका मकसद मुझे इत्तखोयी का इतिहास बताना नहीं था. बल्कि यह पूछना था कि बुद्ध कैसे राजकुमार थे कि जब वे घर से निकल गये तब उन्हें खोजने उनकी मौसी निकली! कभी भी, कहीं भी किसी सेना द्वारा उन्हें खोजने का जिक्र नहीं आता है, ना लाव-लश्कर के साथ उनकी तलाश की कोई कहानी मिलती है. उन्होंने कहा कि ऐसे राजा की परंपरा तो हमारे आदिवासी समुदाय में है. राजा जरूर होगा, पर लाव-लश्कर नहीं, कोई सेना भी नहीं. बुद्ध हम आदिवासियों के राजा जैसे ही लगते हैं.
फिर उन्होंने याद दिलाया कि बुद्ध का जन्म साल के पेड़ के नीचे हुआ और उनकी मृत्यु भी साल के पेड़ के नीचे हुई. आप जानते हैं कि हमारे झारखंड में सरहुल जैसा पर्व है जिसमें साल का पेड़ ही प्रमुख है. हम अपने को बुद्ध से जोड़ते हैं. इसके बाद फिर उन्होंने पूर्व सांसद रघुनाथ सिंह की किताब ‘बुद्ध कथा’ पढ़ने की सलाह दी. फिर अपनी प्रति से निकालकर उसका एक पेज बताया, जिसमें वर्णन है कि बुद्ध जब कंकजोल प्रदेश पहँचे तब उनका संवाद कजंगला नामक आदिवासी महिला से हुआ. कंकजोल प्रदेश वर्तमान का संथाल परगना है.
उनकी बातें सुनते हुए अनुपमजी का कहा याद आता रहा. आदिवासी राजा कैसे होते हैं?
टाना भगतों की प्रार्थना
झारखंड में घूमते हुए सही में इन बातों को कई बार, अलग-अलग तरीके से महसूस किया. कुछ सालों बाद रांची से सटे बेड़ो में जाना हुआ, टाना भगतों के बारे में मालूम चला था. जब बेड़ो से सटे रोगो गाँव पहुँचा तब टाना भगत समुदाय के लोग प्रार्थना की तैयारी में थे. महिला-पुरुष जुटे हुए थे सफेद कपड़ों में, गांधी टोपी लगाये. तिरंगे झंडे के सामने दीप लेकर आये. घंटी बजी. स्थानीय कुड़ुख भाषा में कुछ लयबद्ध प्रार्थना होने लगी. मैं कुड़ुख भाषा नहीं जानता था. प्रार्थना के बाद उसका अर्थ समझने की कोशिश की. वहीं मौजूद खेड़ेया भगत से आग्रह किया कि वे उसका मर्म बतायें.
उन्होंने अनुवाद कियाः “हे धर्मेश, दुनिया मे शांति बनाए रखना. हिंसा, झूठ और बेईमानी की जरूरत मानव समाज को न पड़े. धर्मेश, हमें छाया देते रहना, हमारे बाल-बच्चों को भी. खेती का एक मौसम गुजर रहा है, दूसरा आने वाला है. हम हल-कुदाल चलाते हैं. संभव है हमसे, हमारे लोगों से कुछ जीव-जंतुओं की हत्या भी हो जाती होगी. हमें माफ करना, धर्मेश. क्या करें, घर-परिवार का पेट पालने के लिए अनाज जरूरी है न! समाज-कुटुंब का स्वागत नहीं कर पायेंगे, उन्हें साल में एक-दो बार भी अपने यहाँ नहीं बुलाएंगे. अपने में ही मगन रहने वाले जीवन का क्या मतलब! इन्हीं जरूरतों की पूर्ति के लिए हम खेती करते हैं. खेती के दौरान होनेवाले अनजाने अपराध के लिए हम आपसे क्षमा माँग रहे हैं. धर्मेश, हमें कुछ नहीं चाहिए, बस बरखा-बुनी समय पर देना, हित-कुटुंब-समाज से रिश्ता ठीक बना रहे, सबको छाया मिलती रहे, और कुछ नहीं.’’
यह सुनते हुए देह में झुरझुरी-सी आ गयी थी, कि ऐसा समाज भी हम लोगों के बीच है, अभी तक. यह पद्धति एक अजूबे की तरह सामने आयी और हमेशा मानस में रह गयी. इक्कीसवीं सदी में भी टाना भगतों ने अपनी निजी इच्छा-आकांक्षा का दायरा बहुत छोटा रखा है. या यूँ कहें कि ऐसा कुछ है ही नहीं. वे जो माँगते हैं वह सीमित है और व्यापक भी. दुनिया में शांति, समाज में समरसता, घर-परिवार-समुदाय को छाया, हित-कुटुंब से रिश्ते बनाये रखने के साधन.
इस समुदाय के नायक और प्रणेता थे जतरा भगत और गांधी को वे अपना आदर्श मानते हैं. सत्य-अहिंसा को जीवन का मूल मंत्र मानते हैं, माँस-मदिरा से दूर रहते हैं. हमारी इस यात्रा में हमारे मार्गदर्शक थे बारीडीह गांव के गंगा भगत, एक पूर्व विधायक जो दुपहिया मोपेड से ही चलते हैं. उन्होंने कहा कि आप किसी भी गुरुवार को आ जाइये, जब हम टाना भगतों की बैठक होती है. या फिर साल भर में तीन बार होने वाले हमारे विशेष आयोजन में, जब हम अपने-अपने घरों में तिरंगा बदलते हैं. वही, तीन बार बदला हुआ तीन तिरंगा, तीन अलग-अलग बांसों पर हर टाना भगत के घर के बाहर या आराधना स्थल पर देखने को मिलेगा.
इसका पहला मौका आषाढ़ माह के रथयात्रा मेले से पंद्रह दिन पहले से शुरु होता है. सभी लोग उस घर पहुँच जाते हैं जहाँ उत्सव होना है. वहाँ सामूहिक उपवास होता है, फिर पूजा, तिरंगा बदल कर भजन-कीर्तन और उसके बाद सामूहिक भोज. इसी तरीके से दूसरे झंडे को कार्तिक में दीपावली के पंद्रह दिन पहले बदला जाता है और तीसरे को होलिका दहन के पहले. इस तरह तीन तिरंगे झंडे तीन लोकों का प्रतिनिधित्व करते हैं. इन्हें बदलने वाली हर महिला और पुरुष सात धागों वाला जनेऊ बदलती है, हर बार. सात धागों वाले जनेऊ के पीछे विश्वास यह है कि वह सतयुग कभी तो आएगा जिसमें सत्य का ही बोलबाला होगा. गंगा भगत कहने लगे कि यदि दूसरे किस्म का आयोजन देखना हो, तो गांधी जयंती को खक्सीटोला गाँव आओ, जहां ७४ स्वतंत्रता सेनानियों का स्मारक है. या फिर १० अगस्त, यानी टाना भगत मुक्ति दिवस. मैंने पूछा यह क्या है.
गंगा भगत ने बताया कि इसी दिन हम लोगों को जमीन का हक मिल सका था. इन जमीन के हिस्सों को अंग्रेज सरकार ने आजादी की लड़ाई के दौरान नीलाम कर दिया था. आजादी के बाद ही उसकी वापसी के लिए विशेष कानून बने, फिर भी इस समाज को उन पर कब्जा नहीं मिल पा रहा था. गंगा भगत ने आखिरी में कहा कि सौ साल के बाद भी सरकारी फाइलों में हम एक अलग समुदाय के रूप में पूरी तरह स्वीकार नहीं किये जा सके हैं, यह एक बड़ी कसक है!
अपने इतिहास के बारे में वहाँ के कार्यकर्ता खेड़ेया भगत ने बताया कि उनके पूर्वज गांधीजी के आने के पहले से ही अंग्रेजों से सत्य-अहिंसा की लड़ाई लड़ रहे थे. जतरा टाना भगत ने आदिवासी होते हुए एक अलग सामुदायिक परंपरा शुरु की थी, अहिंसा मार्ग अपनाते हुए. आदिवासियों में पशु बलि की परंपरा रही है, हड़िया-दारू की भी. लेकिन वीर जतरा भगत ने बीसवीं सदी के आरंभ में ही माँसाहार, पशु बलि और नशे के खिलाफ अभियान चलाया. आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा उनके साथ हो लिया. छोटानागपुर, संथाल परगना, मानभूम और सिंहभूम से ले कर पलामू तक, और ओडीशा, छत्तीसगढ़ आदि इलाकों में भी उनका गहरा असर पड़ा. यह आंदोलन अलग-अलग नामों से चला और बढ़ता गया.
जतरा भगत और गांधी की मुलाकात नहीं हुई थी. जब तक गांधी तीन दिन के लिए बेड़ो आते, उसके बहुत पहले ही जतरा भगत दुनिया से विदा हो चुके थे. खेड़िया भगन ने कहा इस समुदाय की गतिविधियों के बारे में गांधी वहाँ पहुँच के ही जान सके, कि यहाँ स्वराज पाने का संघर्ष अपने तरीकों से सत्य-अहिंसा के आधार पर पहले से चल रहा था. इसका एक पहलू था कपास उगा कर अपने कपड़े खुद तैयार करना. पहले इस समुदाय का झंडा सादा था. गांधी के आग्रह पर चरखे वाला तिरंगा आ गया और टाना भगत गांधी के ही हो गये, अब तक हैं, और उनकी कोशिश है कि आने वाली पीढ़ियाँ भी इसी राह पर चलें. लेकिन खेड़ेया भगत के स्वर में भविष्य के प्रति आशंका भी थी.
बादुरटोला के बाशिंदे
रांची के पास का ही एक गाँव है बादुरटोला, जहाँ की टाना भगत बस्ती देखने मैं चला गया. एक मित्र ने बताया था कि यहाँ चमगादड़ों के साथ रहने के लिए इनकी अपनी अलग ही व्यवस्था है. चमगादड़ को झारखंड और बिहार में बादुर भी कहते हैं.
यह गाँव भी अन्य आदिवासी गांवों की ही तरह छल-प्रपंच से दूर है. भरोसे के रिश्ते पर सबसे ज्यादा भरोसा करनेवाले लोग. भोले-भाले रहनिहारों की मुफलिसी की जिंदगी में शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई आदि बुनियादी सुविधाओं को लेकर तमाम तरह की दुश्वारियाँ भी कोई कम नहीं. बस्ती में घुसते ही हर पेड़ पर चमगादड़ों की फौज दिखी, अपने स्वाभाविक अंदाज में उलटे लटकी हुई. उनकी चाँव-चाँव की आवाज गाँव के हर कोने में सुनाई पड़ती थी. यहाँ के लोगों का उससे पीढ़ियों का रिश्ता है. उन्होंने इस कलरव से लय मिलाते हुए जीने की कला सीखी. बिना किसी आडंबर के, बिना किसी आत्मप्रचार के, एनजीओ और संस्थाओं की नजर से बचते-बचाते हुए, सरकारी संस्थानों की कागजी कवायद से परहेज करते हुए उन्होंने हजारों चमगादड़ों को सहेज कर रखा. समय गुजरने के साथ पीढ़ियाँ बदलती गयीं, गाँव वालों की और चमगादड़ों की भी. सहजीवन का यह प्रयोग चलता रहा.
उस गाँव में मिले थे गौरीशंकर भगत. उन्होंने कहा कि बादुर हमारे परिवार की तरह हैं. हम उनका कभी कुछ नहीं बिगाड़ते, उन्हें कभी नहीं छेड़ते. अगर कभी किसी की पीड़ा या तकलीफ से मुक्ति दिलाने की जरूरत पड़ती है, तो दो-एक चमगादड़ मारने की इजाजत हो जाती है. पर ऐसा नहीं हो सकता कि कोई भी जा के चमगादड़ को मार लाएगा. उसके लिए पहले बातचीत होती है, किसी बूड़े बादूर की पहचान की जाती है, उसके बाद ही उसे मारा जा सकता है. उनके इलाज के तरीकों में चमगादड़ के खून से कुछ बीमारियों का इलाज होता है.
वहीं पर महेंद्र भगत मिले. उन्होंने कहा कि चमगादड़ का माँस आदिवासियेां के बीच लोकप्रिय है, स्वादिष्ट माना जाता है. लेकिन इस गाँव में हजारों चमगादड़ के झुंड होने के बावजूद कभी इनका खाने के लिए शिकार नहीं होता. वहाँ के कई पेड़ चमगादड़ों के लिए आरक्षित हैं—कटहल, आम, जामुन और यूकेलिप्टस. गाँव वाले मानते हैं कि बादुर भी उन्हीं की तरह जीव हैं, यहीं के बाशिंदे हैं. अगर उन्हें वहीं भोजन न मिला तो वे कहाँ जाएँगे! यहाँ रहने वाले चमगादड़ फलाहारी हैं.
बिल्कुल पास के गाँव-टोलों में बड़ी संख्या में पेड़ हैं लेकिन वहाँ चमगादड़ों ने कभी अपना आशियाना नहीं बनाया. गाँव की एक महिला रजनी ने कहा कि हर जीव वहीं रहना चाहता है, जहाँ सुरक्षा और आत्मीयता मिले. अगर हमारे गाँव को चमगादड़ कभी नुकसान नहीं पहुँचाते, तो हम क्यों उन्हें परेशान करें! रजनी ने कहा कि आदिवासी अधिकतर हाथ में गुलेल लिये मिलते हैं और उनका निशाना अचूक होता है. वे उड़ते पक्षी को मारने में भी दक्ष होते हैं. ऐसे में चमगादड़ों को चारों ओर खतरा लगता होगा. कभी इस गाँव में चमगादड़ों का झुंड आया होगा और उन्हें मारा नहीं गया होगा. वे यहीं बस गये. ऐसा भी हो सकता हो कि बादुर यहाँ पहले से रहते रहे हों, और बाद में गाँव वाले आये हों. अपने से पहले मौजूद जीवों के मान में गाँव का नाम बादुरटोला हो गया.
पहाड़ों पर बसा सौरिया देश
इस तरह के लोगों से मिलने की जिज्ञासा बढ़ती गयी. एक बार संथाल परगना जाना हुआ अपने पत्रकार मित्र पल्लव के साथ. हम गोड्डा से सुंदरपहाड़ी की ओर निकले, जहाँ पहाड़िया लोगों की पुरानी बसाहट है और जबरा पहाड़िया का घर है. वे ‘पहाड़िया विद्रोह’ के नायक थे. इस घटना से पहाड़िया लोग अपने को देश से जोड़ते हैं, चाहे देश उनसे उस रूप में नहीं जुड़ सका.
सुंदरपहाड़ी पर चेबो गाँव है, जहाँ हमें चंद्रमा पहाड़िया मिले. उन्होंने हमसे कहा कि आपने इतिहास तो पढा़-सुना ही होगा, कि हम इस देश ही नहीं धरती के पुराने वाशिंदे हैं. बहुत-से आदिवासी भी हमसे बाद के हैं. सरकार हमें आदिम जनजाति कहती है. लेकिन असल में तो हम ‘जुगवासी’ हैं. हमारे पुरखे बड़े लड़ाके रहे हैं, उनकी भिड़ंत सुल्तानों से हुई, अंग्रेजों से हुई. मुगलों के आधिपत्य को हमारे पुरखों ने खारिज किया. अंग्रेज हमसे कभी पार नहीं पा सके. इतिहास में गौरवान्वित १८५७ की लड़ाई या उसके पहले का संथाल आदिवासी विद्रोह तो बाद की बातें हैं, उसके बहुत पहले का हमारा पहाड़िया विद्रोह है. चंद्रमा टूटी-फूटी हिंदी में अपनी बात कहते जा रहे थे, एक ही साँस में न जाने कितना कुछ कहने को आकुल थे. कहने लगे, आपको यहाँ के भूगोल का तो अंदाजा लग ही गया होगा. इतिहास हमने बता ही दिया. अब हम वर्तमान की बात करते हैं.
नौवीं कक्षा तक पढ़े हुए चंद्रमा पहाड़िया तब पच्चीस साल के रहे होंगे. अपने ‘जवार’ में, अपने समुदाय में सबसे काबिल लोगों में से एक थे. सामाजिक संस्थाओं से जुड़ाव के कारण बाहरी दुनिया का गुणा-गणित भी थो़ड़ा-बहुत समझते थे. उनका बात करने का तरीका प्रभावशाली था, जिसमें वे रोजमर्रा की चुनौतियों को किस्से की तरह सुनाने लगे. मुफ्त में मिलने वाले ३५ किलो चावल के लिए उनके लोग १५-२० किलोमीटर की दूरी तय कर महीने में एक बार पहाड़ से नीचे पैदल उतरते थे. इकट्ठे हो के एक रोज पहले शाम को चल देते थे और वहाँ रात को पहुँचते थे. अगले दिन शाम तक चावल मिलता था, वह भी नाप-तौल कर नहीं, बल्कि एक टीन के डिब्बे में भर कर. फिर वही १५-२० किलोमीटर वापिस! इस तरह कुल तीन दिन लग जाते थे.
चंद्रमा इसे शिकायत की तरह नहीं कह रहे थे. वे लोग पहाड़ पर मजबूरी में नहीं रहते. उनकी अपनी व्यवस्था रही है, अपनी सामुदायिक संस्कृति भी, जिसे वे बताने लगे – “हम झूम खेती करते हैं, पहाड़ को जला कर. यह हम सब का नैसर्गिक गुण है. हमारे पहाड़ पर कटहल और जामुन के पेड़ की भरमार है. हमारा नीचे की जमीन पर रहने वालों से कोई मुकाबला नहीं है, ना ही उनकी किसी भी किस्म की तरक्की से हमें जलन होती है. लेकिन यह बुरा लगता है कि हम पर पिछड़ेपन का तमगा लगा कर हमारी अपनी व्यवस्था में विकास के नाम पर दखल डाला जाता है, सड़क आदि का सपना दिखाया जाता है. आप सड़क जरूर बनाइये, पर हमारे समाज को अपने तरीके से चलने दीजिए. हम सब अपनी व्यवस्था से चलते हैं, सभी मामले आपस में निपटाते हैं. बार-बार पहाड़ से नीचे उतर कर जरा-सी बात पर शहर, कोर्ट-कचहरी, थाना, पुलिस… इस सब की लत नहीं लगाना हमें.” चंद्रमा की आवाज में आक्रोश आ गया था.
सुंदर पहाड़ी पर करीब १०० पहाड़िया गाँव हैं. इन्हें मिलाकर इसे सौरिया देश भी कहा जाता है. पहाड़ियों की एक प्रमुख उपजाति का नाम भी सौरिया है.
मेरे साथी पल्लव इस इलाके में सालों से पत्रकारिता कर रहे थे. उन्होनें कहा कि यहाँ के गाँवों में कहीं कोई दुकान नहीं दिखी, सो सोचिए कि इनकी जरूरतें कैसे पूरी होती होंगी! जब यहाँ के लोग साप्ताहिक हाट में जाने के लिए पहाड़ से नीचे उतरते हैं, तब अपने अनाज, लकड़ी, फल आदि साथ लेकर जाते हैं. वहाँ औने-पौने दाम में खरीदने के लिए तैयार बैठे साहूकार इसके बदले इन्हें जरूरी चीजें दे देते हैं.
एक नयी दुनिया से परिचय हुआ था. पहाड़िया लोगों के लिए तीन चीजें ही प्रमुख हैंः अपना सामाजिक जीवन, अपनी व्यवस्था और खेती. खेती से उनका आत्मीय रिश्ता इससे समझा जा सकता है कि हर नयी फसल का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है, उनका साल का सबसे बड़ा सामूहिक आयोजन! जैसे आम पूजा, मक्का पूजा, बरबट्टी पूजा…
चंद्रमा ने कहा कि इन दिनों वे सब दुखी रहते हैं – “हमारे पुरखे पीढ़ियों से इसी पहाड़ पर रह रहे हैं. कभी हमने जंगल नहीं काटे. हम पहाड़ के खाली हिस्से पर खेती करते हैं. लेकिन जब सड़क आदि के नाम पर पेड़ों को काटा जाता है, तब हम लोगों का कलेजा निकल आता है. हमारे पास पहाड़ ही नहीं होगा, हमारी निजता नहीं होगी, तो पुरखों की उस सामाजिक व्यवस्था का क्या होगा जो हमारा जीवन दर्शन है!”
मेरे लिए ‘जुगवासी’ नया शब्द था. उसका अर्थ आज तक ढूँढ़ रहा हूँ.
अपनी आस्था, अपनी व्यवस्था
संथाल परगना में फिर जाना हुआ. वहाँ के जादूपेटिया नामक एक समुदाय के बारे में सुना था. ज्यादा कुछ नहीं, बस इतना कि कभी उधर जाना हो, तो जादूपेटिया लोगों से जरूर मिलना चाहिए. बताने वालों ने कहा था कि अगर जाने का मौका मिले, तो वहाँ से लौटकर अन्य लोगों को भी कहिएगा कि वे भी जायें वहाँ. खासकर वे खुराफाती लोग जो धर्म के नाम पर एक-दूसरे से फरियाने के लिए उकसाते रहते हैं.
वह दिन आ ही गया. मैं संथाल परगना (और झारखंड) के आखिरी छोर तक पहुँच गया, बंगाल के बोलपुर से लगा हुआ. दुमका शहर से करीब ३५ किलोमीटर दूर जागुड़ी गाँव पहुँचा, फिर गया वहाँ से कोई १५ किलोमीटर की दूरी पर मौजूद जबरदाहा गाँव. वहाँ के जादूपेटिया लोगों से मिलना था. उनका ताल्लुक डोकरा आर्ट से है. पुराने पीतल को गलाकर मिट्टी, मोम, धूपबत्ती, सरसों तेल आदि मिलाकर गहने और कलाकृतियाँ भी यहाँ बनायी जाती हैं. यहाँ के लोग कहते हैं कि जब से मनुष्य में सजने-संवरने की चेतना आयी, तब से हम यही काम कर रहे हैं. पीढ़ियों से वे कला के साथ ऐसे एकाकार हो चुके हैं कि अब करम-धरम सब कला ही है. जागुड़ी-जबरदाहा जैसे गाँव में यही बात चकित करनेवाली थी. उनकी कलाओं के तेजी से मिटते जाने का दुख भी था, पर कुछ बातें सुखद आश्चर्य की भी थीं.
जागुड़ी में कोई २२ जादूपेटिया घर थे और हर घर में भट्ठी थी, चाक थी. सभी लोग अपने काम में तल्लीन थे. कोई नाक-कान-गले का गहना बना रहा था, तो कहीं घूंघरू पर हाथ फेरा जा रहा था. बोलपुर के सालाना मेले की तैयारी हो रही थी. हाकिम जादूपेटिया के घर पहुँचे, फिर पैगंबर, मकबूल, अरजीना और प्रहलाद जादूपेटिया से मुलाकात हुई. ढेरों बातें हुई. कला की, आमदनी की, हुनर के मिटते जाने की. एक बात मन में सदा-सदा के लिए अंकित हो गयी थी – यहाँ का धर्म, जो असल में कला ही है! इसमें हिंदू, मुसलमान और ईसाई धर्म सम्मिलित हैं.
जागुड़ी के बाद जबरदाहा पहुँचे. वहां अलीम अली मिले, जिनके साथ के कलाकार सरसडंगाल खदान में पत्थर तोड़ने में लगे थे. देश भर में अपनी कला का प्रदर्शन करने वाले कलाकार यहाँ मजदूर थे. इस इलाके में करीब दर्जन भर जादूपेटिया गाँव थे, जहाँ के कलाकार तेजी से अपने पुरखों के इस काम से तौबा कर रहे थे… या पहले ही कर चुके थे. ऐसा लगा कि वह समय दूर नहीं जब जादूपेटिया कलाएँ इतिहास बन के रह जाएँगीं.
जागुड़ी-जबरदाहा के जादूपेटिया परिवारों में धर्म का एक कमाल रूप दिखा था. पैगंबर जादूपेटिया के बेटे का नाम प्रहलाद था, जिनके अपने बेटे का नाम अहमद था. हाकिम की पत्नी का नाम था लालमुनि. एक ही घर परिवार में निजाम, मदीना, भानु, शंभू नाम के सदस्य मिले. नाजिर ने अपनी बेटी का नाम मरियम रखा था और फिर उसका पति एक अंसारी परिवार से था. मैंने उनसे पूछा – आखिर आप किस धर्म से आते हैं? कोई सीधा-सीधा जवाब नहीं मिला. फिर हीरामन नामक एक महिला बोल उठीं – “देवता तो बस देवता होता है. हिंदू का देवता, मुसलमान का देवता, ईसाई का देवता… हम सबको मानते हैं. हम सब त्योहार मनाते हैं. हमारा धर्म कला ही है.” कई लोग उनकी हाँ में हाँ मिलाने लगे.
सारंडा भी गया था
एक दौर ऐसा आया जब नक्सल या माओवादियों से लड़ने के लिए देश भर में आपरेशन ‘ग्रीन हंट’ शुरु हुआ. झारखंड में इसका केंद्र था सारंडा का इलाका.
यह दंडकारण्य का वह दंतेवाड़ा नहीं था, जहाँ के एक बड़े हिस्से में माओवादियों का राज चलता था. हाँ, सारंडा पिछले दस सालों में इस मुहाने पर पहुँच गया था कि उसे ‘दूसरा दंतेवाड़ा’ कहा जाने लगा था. एशिया का सबसे बड़ा साल का जंगल यहाँ ८० हजार हेक्टेयर में फैला हुआ है. कभी अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाने वाला यह इलाका अब पुलिस और माओवादियों की मुठभेड़ की वजह से चर्चित हो चुका था, अवैध खनन के लिए भी. सशस्त्र पुलिस बलों के करीबन चार हजार सिपाहियों ने सारंडा के एक हिस्से में अँटी-नक्सल ऑपरेशन चल रहा था. उस समय वहाँ जाना हुआ, हालाँकि उससे हासिल क्या हुआ यह नहीं कह सकता.
रांची से ही बहादुर सिंह मुंडा हमारे साथ हो लिए थे. सारंडा पहुँचने पर उन्होंने कहा कि गाड़ी का हॉर्न कुछ अंतराल पर लगातार बजते रहना चाहिए. यही नहीं, गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम दुरुस्त रखना होगा, जिस पर ऊँची आवाज में गीत-संगीत बजते रहना चाहिए, चाहे वह कानफाड़ू ही क्यों न हो. यही नहीं, गाड़ी के खिड़की-शीशे खुले रहने चाहिए. यह सब इसलिए ताकि हर सौ कदम पर किसी-न-किसी रूप में मौजूद माओवादी कार्यकर्ताओं को यह कतई न लगे कि कोई पुलिसवाला जा रहा है जिसकी गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम नहीं होती, खिड़कियाँ बंद रहती हैं, और बिना हॉर्न बजाये चुपके से निकलना चाहता है. इस तरह का संदेह पैदा न होने देने से एक और लाभ था. यह आशंका घटती थी कि हमारी गाड़ी किसी बारूदी सुरंग या केन बम की चपेट में आ जाये. बहादुर की इन हिदायतों से रोंगटे खड़े हो गये थे. खुद बहादुर साथ चल रहे थे इसलिए भय जरा कम था. लेकिन एक महिला पत्रकार मित्र भी साथ थीं, सो डर का अलग कारण था.
सारंडा पहुँच के हम पहुँचे छोटानागरा. यह कभी एक धार्मिक पर्यटनस्थल के रूप में जाना जाता था, क्योंकि यहाँ मानव खाल से निर्मित दो नगाड़े थे, जिन्हें ओडीशा के क्योंझर राज ने बनवाया था. छोटानागरा की नयी पहचान बन गयी थी जिसकी भाषा खून, बारूद और वर्चस्व के व्याकरण से बनी थी.
इस माहौल में बहादुर ने अपना संकोची-शर्मिला स्वभाव तोड़ते हुए कहा – “आप लोग पत्रकार हैं तो यह तो मालूम होगा कि हमारे पुरखों ने जंगल-पहाड़ों की दुर्गमता से लड़ाई लड़ अपने रहने के लिए, अपनी खेती-बाड़ी के लिए जगह तैयार की. जानवरों की खोह में इंसानों के आने-जाने के तरीके बनाये. लेकिन जब इसके एवज में पानी-बिजली की माँग की, तब वर्षों से कोई सुनने को तैयार नहीं रहा है. हाँ, बहाने लाख बने. लेकिन हमारे ही गाँव के बगल में जब कंपनियां आती हैं तब उनके लिए दस दिनों के अंदर ही बिजली-पानी-सड़क आदि का इंतजाम हो जाता है. ऐसा क्यों?”
अपनी बात जारी रखते हुए बहादुर ने कहा – “यदि कोई ग्रामीण मजबूरी में एक शाम का भोजन माओवादियों को खिलाता है, तो उसे नक्सली मददगार कहा जाता है, मारा-पीटा जाता है, जेल भी भेजा जाता है. लेकिन सालों से उद्योगपति, व्यवसायी, कारोबारी माओवादियों को लाखों-करोड़ों रुपये की लेवी (फिरौती या जबरन का चंदा) देते हैं. उन्हें कोई नक्सली मददगार घोषित क्यों नहीं करता? आपने कभी सोचा है कि नक्सल और पुलिस को, दोनों को ही सारंडा से इतना मोह क्यों है?” हम भी इसी सवाल का जवाब तलाशने गये थे. आखिर एशिया के सबसे बड़े साल जंगल में ही इतनी रुचि क्यों? माओवादियों का खौफ तो झारखंड के दूसरे इलाके में कोई कम नहीं था!
जवाब की तलाश में छोटानागरा में हमें प्रमोद सिंकू मिले. उनका कहना था – “पुलिस या तो आर-पार की लड़ाई लड़े, या हमें माओवादियों के भरोसे छोड़ दे. हम लोग तो दोनों के बीच पिसकर बर्बाद हो रहे हैं. न इधर के रहे हैं, न उधर के. यहाँ की नयी पीढ़ी दहशत और हिंसा के बीच पैदा हो रही है. उससे भविष्य में सभ्यता और जिम्मेदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है? हमारे पुरखों ने शिकारियों से, खतरनाक जानवरों से लड़ कर इस जंगल को रहने लायक बनाया. अब वही सारंडा शिकारगाह बन गया है.”
आगे गोइलकेरा पहुँचे. बहादुर एक घर से कुछ कागज ले आये और पढ़ने लगे. बाँचते हुए कहने लगे – “आप जानते हैं न कि यहाँ चीड़िया माइंस है, जहाँ एशिया की सर्वश्रेष्ठ कोटी के अयस्क मौजूद हैं. हमारे पुरखों ने इसे कभी खोखला नहीं किया, न जंगल ही काटा. किंतु आज इन खदानों की वजह से यह जंगल साफ किया जा रहा है.” सारंडा में घूमते हुए अनेक लोगों की चिंता यही थी. उनके पूर्वजों ने जिस जंगल को बिना काटे रहने लायक बनाया, उसे अब वीरान क्यों किया जा रहा है?
सुख दुखे समे कृत्वा
सारंडा से लौटते हुए हम लोग रुके बंदगाँव में, जो एक कस्बाई बाजार जैसा है. इसकी शोहरत टैबो घाटी की वजह से है. एक समय यह बेहद खूबसूरत थी और आज भी झारखंड की कुछ दुरूह वादियों में गिनी जाती है. लगभग २० किलोमीटर तक किसी मोबाइल कंपनी का नेटवर्क नहीं था. उस समय एक फोन कंपनी अपने इश्तेहार में ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ का नारा लगाती थी. बंदगाँव का यह इलाका उसकी मुट्ठी में बंद नहीं हुआ था. हमने सुना था यहाँ जंगल को उजाड़ने वाले कारोबारियों और नक्सलियों की वजह से मोबाइल टॉवर कभी लगे ही नहीं.
इस घाटी का खौफ ऐसा था कि लोग शाम के बाद यहां यात्रा नहीं करते थे. हमारी रांची की वापसी यहीं से होने थी. हम शाम को एक गाँव पहुँचे और उसके छोटे-से टोले में रुक गये. उसका नाम भी याद नहीं है. जो सदा-सदा के लिए याद रह गया वह एक अजीब दृश्य है. पुरुषों का समूह शिकार के बाद गाँव लौट रहा था और उसने तेज लय में एक खास तरह की बाँग दी. इसे सुनते ही वहाँ की महिलाएँ घरों से बाहर निकलने आयीं, जिस काम में लगी थीं उसी के साथ. कोई अगर चावल को चुन रही थी, तो सूप लिये हुए आ गयी, जो जलावन तैयार कर रही थी वह हाथ में लकड़ी लिये हुए ही. कोई साथ बैठे बच्चे के लिये हुए थी.
पहाड़ से पुरुष उतरे, घर से महिलाएँ निकलीं. दोनों कुछ देर तक मस्ती में नाचते-गाते रहे, जोश के साथ. फिर सब सामान्य हो गया. जो गीत गाया गया था उसका अर्थ मैंने पूछा. पता लगा कि यह जीवनचर्या का हिस्सा है, रोज होता है. दिन भर हमने जो भी किया, उसका फल खुशी से बाँटने के लिए. फल, जलावन की लकड़ी, शिकार, सभी गाँव लाकर पहले सामूहिक जश्न मनाया जाता है. जिस दिन कुछ नहीं मिलता, उस दिन अभाव का भी सामूहिक बँटवारा होता है, उतने ही जश्न के साथ.
उस दिन गाये हुए गीत का मर्म कुछ ऐसा ही था. पुरुषों को जंगल में कुछ नहीं मिला था. उन्होंने गाके महिलाओं से क्षमा माँगी, कि ‘हे जननी हमें माफ करना, जो हम तुम्हें ब्याह कर लाये. आज तो कुछ नहीं मिला जंगल में. तुम्हारा बच्चा क्या खायेगा! तुम क्या खाओगी!”
इसके जवाब में स्त्रियों ने गाया, “एक दिन नहीं खाने से क्या हो जाएगा बच्चे को… क्या हो जाएगा हमें… हम आदिवासी हैं. एक दिन खाना नहीं खाने से हमारा कुछ बिगड़ने वाला नहीं है. तुम कुशल लौट आये, यही क्या कम है!”
सुख और दुख, दोनों में समभाव था. जो माओवादियों की वजह से डरावना इलाका कहा जाता था, उसी इलाके में उन सबसे बेपरवाह लोग मिले. एक ऐसा समाज जो अपने तरीके से जीवन जीता है! जिसके लिए सहजीवन का आधार आनंद है, रोजमर्रा के सुख-दुख से परे.
एक फिल्मकार, एक कवि
सारंडा में खून-खराबा, बम-बारूद की बातें सुन-सुन कर मन भारी हो गया था. वहाँ से लौटते हुए रास्ते से ही मैंने बिजू टोपो को फोन लगाया. ‘जोहार’ होते ही मैंने कहा – दादा आ रहे हैं मिलने, बतियाएँगे. उन्होंने पूछा – अईसहीं बतकही करेंगे न! मैंने कहा – नहीं इंटरव्यू जैसा! बिजू बोले – हम वोकल आदमी थोड़े हैं, बोलना थोड़े न जानते हैं!
बिजू आदिवासी इलाके के हर अनकहे इतिहास, वर्तमान और भविष्य का डॉक्युमेंटेशन कर रहे हैं. वृत्तचित्र या डॉक्युमेंटरी फिल्म बना कर. उनकी १९९८ की फिल्म है – ‘जहाँ चींटी लड़े हाथी से’. पाँच साल बाद फिल्म आयी – ‘विकास बंदूक की नली से’. अगली फिल्म थी ‘फ्रॉम कलिंगनगर टू काशीपुर’. फिर ‘कोड़ा राजी’, जो कुड़ुख भाषा में है, चाय बगान में रहने वाले मजदूरों पर. पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में पानी को बचाने के तरीके को लेकर २००७ में ‘खोरार देसे जोलेर कथा’ नाम से फिल्म बनाते हैं. ‘लोहा गरम है’ उनकी चर्चित फिल्म है जिसे बेस्ट एनवायर्नमेंटल फिल्म का नेशनल अवार्ड भी मिला. और भी न जाने कितनी फिल्में हैं बिजू के नाम.
पर बिजू किसी सहज-सरल आदिवासी की तरह ही जीते हैं, अपने काम में लगे रहते हैं. ना इधर-उधर की सेटिंग की दुनिया में रहते हैं, ना किसी की आलोचना में. ना कोई ठसक आ सकी है उनमें, ना कोई दिखावा ही. बिजू या तो अपना काम करने के लिए घूम रहे होते हैं, या एडिटिंग टेबल पर पाये जाते हैं. अगर इन दोनों ही जगहों पर नहीं हैं, तो फिर अपने गाँव के खेत में कुदाल चला रहे होते हैं.
उस दिन बिजू ने कहा – “मुश्किलों पर बात नहीं करना चाहिए. जीवन में मुश्किलें न हों, संघर्ष न हो तो फिर जिंदगी कैसी. और फिर हम तो आदिवासी हैं. आदिवासी अपने मुश्किलों का रोना कभी नहीं रोता. किसान का बेटा हूँ और खुद भी किसान हूँ. किसान के जीवन में जो परेशानी होती है, वह मेरे जीवन में भी रही है, लेकिन कभी खेती करना नहीं छोड़ा. वह तो मेरा मूल काम है. अगर बरसात में एक बार खेती करने घर न जाऊँ, खेत में जा कर अपना काम खुद से न करूँ, तो पिताजी का संदेश पर संदेश आने लगता है. मेरे पिता हमेशा एक ही बात समझाते हैं, कि सिनेमा बनाओ, चाहे जो बनाओ, अपने समाज, अपने लोगों की बात करना कभी नहीं छोड़ना, खेती कभी नहीं छोड़ना.”
उनसे मिलने के बाद आदित्य मांडी से मुलाकात हुई. वे कवि हैं संथाली भाषा के. उन्हें साहित्य अकादमी का अवार्ड मिला था, उसी साल जब काशीनाथ सिंह को हिंदी के लिए मिला. बिजू और आदित्य में परिचय नहीं है, पर अलग से बात करने पर भी दोनों एक जैसा ही जवाब देते हैं. आदित्य को इस बात की कसक थी कि जब वे साहित्य अकादमी अवार्ड लेने उनके समारोह में गये, तब वहाँ मौजूद अनेक कवियों और साहित्यकारों में से किसी एक ने उनसे मिल कर उन्हें बधाई तक नहीं दी. किसी ने पूछा तक नहीं कि कविता में ऐसा क्या कहे हैं कि आपको यह सम्मान मिला.
मैंने उनसे पूछा कि हिंदी वाले ऐसा बर्ताव क्यों करते हैं. आदित्य ने कहा – इसलिए क्योंकि वे डरते हैं. अगर आदिवासी या इस तरह के समाज के लोग लिखने लगेंगे, तो उनके सामने नयी चुनौती आ जाती है. वे ज्ञान के क्षेत्र पर एकाधिकार रख कर अब तक अपने तरीके से चीजों की व्याख्या करते रहते हैं. लेकिन उनका ज्ञान तो बहुत बाद का ज्ञान है न! इतिहास ज्ञान भी उनका बहुत बाद का है. वे पवित्रता और ज्ञान की दुनिया में आदिवासी या देशज चेतना वालों के सामने टिक नहीं पायेंगे. उनका भेद खुल जाएगा. एकाधिकार टूट जाएगा. इसलिए वे डरते हैं कि सृष्टि को सबसे करीब से समझने वाले, महसूस करने वाले और सबसे लंबे समय से दुनिया को बदलते हुए देखने वाले अगर लिखेंगे, तो खुद उनके लिखे हुए पर सवाल के घेरे बनते जाएँगे. हमारे समुदाय छल-प्रपंच की दुनिया में नहीं हैं, इसलिए वे डरते हैं. आदित्य से बात कर मन हल्का हुआ.
पाषाण की दशा, दिशा
हजारीबाग में कोने-कोने में फैले हुआ जीवंत अवशेष आदिवासियों के हजारों साल पुराने खगोल विज्ञान की गवाही देते हैं. हजारीबाग शहर से बाहर निकल कर कुछ किलोमीटर की दूरी पर रोला हैं. न गाँव, न शहर, बल्कि कस्बे जैसा. जब वहाँ जाना हुआ तब मेरे साथ हजारीबाग के शुभाशीष दास थे. चारों ओर मकान थे, कुछ बने हुए और कुछ बनते हुए. उनके बीच एक खेत में बिखरे पड़े थे कुछ आड़े-तिरछे पत्थर. शुभाशीष ने कहा – देखिए, आदि विज्ञान और इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय चारों ओर से भवनों के बीच कैद होता जा रहा है, एक दिन यह मिट जाएगा, मिट्टी में मिल जाएगा.
बात कुछ साफ समझ में नहीं आयी. मैंने कहा कि यह तो पत्थरगड़ी केंद्र है, जहाँ आदिवासी समाज किसी की मृत्यु के बाद उसकी स्मृति में पत्थरों को गाड़ा करते हैं. हँसते हुए शुभाशीष ने कहा – “अगर इन्हें सिर्फ मृत आत्मा की याद में गाड़ा गया होता, तो सभी पत्थर अमूमन एक तरीके के होने चाहिए थे! सबको या तो गाड़ा जाना चाहिए था, या रखा होना चाहिए था.” उसने अपने बैग से कंपास और इंच-टेप निकाला. एक पत्थर पर कंपास को रखा और दिखाया कि वह उत्तर-दक्षिण की दिशा में रखा हुआ था. सारे पत्थर उत्तर-दक्षिण की सीध में थे. फिर शुभाशीष ने दो पत्थरों के बीच की दूरी को टेप से नापा. यह दूरी जितनी निकली, अगला पत्थर ठीक उससे दो गुनी दूरी पर था. उससे अगला चार गुना दूरी पर. शुभाशीष ने कहा कि इनकी अवस्था सोच-समझ के तय की गयी थी, कि ये सब विज्ञान के औजार हैं! वह भी तब के जब खगोल विज्ञान का आधुनिक साइन्स तैयार नहीं हुआ था. हैरत हुई कि इतिहास कितनी चीजों को निगल जाता है!
शुभाशीष दो दशक से इन्हीं पत्थरों की दुनिया में डूबे हुए थे. पहले एक प्राइवेट कंपनी में मार्केटिंग का काम करते थे, फिर डी.ए.वी. स्कूल के प्रिंसिपल बने, और दो दशक पहले इन पत्थरों की दुनिया को समझने का ऐसा जुनून सवार हुआ कि सब छोड़ के इसी में लग गये और ऐसी चालीस जगहों को खोज निकाला. इस विषय पर उनकी दो महत्वपूर्ण किताबें आ चुकी हैं – ‘इन सर्च ऑफ मेगालिथ्स्’ और ‘सेक्रेड स्टोन इन इंडियन सिविलाइजेशन’.
बोलचाल में इसे पथलगड़ी केंद्र कहते हैं. उराँव, मुंडा, हो और असुर आदिवासियों में यह परंपरा न जाने कब से चली आ रही है. किसी की मृत्यु के बाद उसकी याद में पत्थर गाड़ा जाता है. अंग्रेजी में इसे ‘मेगालिथ’ कहते हैं, यानी बड़ा पत्थर जो एक स्मारक की तरह रखा गया हो. ‘ऑस्ट्रिक’ परिवार की भाषाओं में इनके लिए जो नाम मिलते हैं उनमें ससंदरी, हड़गड़ी और हड़सड़ी भी हैं. यह परंपरा कब शुरू हुई, यह तो इतिहास के पन्ने नहीं बताते. लेकिन यह माना जाता है कि नव-पाषाण काल एवं ताम्र युग के समय से ही इसका चलन रहा है.
यह भी पता चलता है कि आदिवासियों ने मृतात्मा की याद में जब इस परंपरा की शुरुआत की, तब कई जगहों पर इसमें खगोल और ज्योतिष के तत्व मिला दिये गये. काल और ऋतु की गणना और अनुमान का साधन भी थे ये पत्थर. बरवाडीह पंकरी की मेगालिथ साइट पर दो पत्थरों के बीच उगता सूरज उसी दिन दिखता है जब वह पूरी तरह से पूरब दिशा से निकलता है. किसी समय यहाँ के लोगों के लिए यह नये साल का पहला दिन हुआ करता था. आज इसे ‘विषुव’ या ‘इक्विनॉक्स’ के रूप में मनाया जाता है.
शुभाशीष ने कहा कि बात सिर्फ काल-मौसम, गणना-आकलन की नहीं है. गौर से देखने पर पता लगता है कि सभी पत्थरों का मिलान बायें कोण से किया गया है, यानी ‘लेफ्ट अलाइंड’. ऐसा शायद इसलिए कि आदिवासी समाज हमेशा से वामा यानी स्त्री को अधिक महत्व देते रहा है. शुभाशीष के कथन से मुझे आदित्य की बात याद आती रही. ज्ञान की दुनिया पर एकाधिकार की चाह रखने वाले लोकज्ञान से डरते हैं.
संवाद के लायक संवाद के दाता
आये दिन अनुपमजी याद आते हैं. उनकी सलाह मानने से जो मिला वह अनमोल निकला. सालों-साल झारखंड घूमने से जो जानने को मिला, वह रांची क्या, किसी भी राजधानी के किसी पुस्तकालय में नहीं पता चलता.
न ऐसे राजा मिलते जो सही में अपने समाज के कारिंदे बन के रहते हैं, न मनराखन किस्कू के आदिवासी पुट वाले बुद्ध मिलते. न टाना भगतों की प्रार्थना सुनने में आती, न बादुरटोला के चमगादड़ों के कलरव में छिपा अर्थ उजागर होता. सौरिया पहाड़ और उस पर रहने वालों की ऊँचाई नहीं दिखती, न जादूपेटिया की सर्वधर्म कला की गहराई के दर्शन होते.
पत्रकारिता ने क्या-कुछ नहीं दिया जो अनमोल है! उसके दृश्य बने हैं बिजू की फिल्मों से, उसके शब्द आये हैं आदित्य की कविता से, और शुभाशीष के खोजे हुए पत्थरों ने उसे सहारा दिया है. अब झारखंड रहना कम हो गया है. लेकिन मन का एक हिस्सा है जो सदा ही झारखंड है, सदा ही लोक-सहज है.
लंबे अरसे के बाद एक पूरा, विस्तृत लेख एक ही बार में पढे बिना रहा न गया।
सचमुच ‘जुगवासी’ का अर्थ समझना कठिन है। क्योंकि, अगर आधुनिकता का उद्देश्य सुख की खोज है, तो वह खोज ‘जुगवासी’ जीवनशैली पर जाकर ही खत्म होगी। तो ‘जुगवासी’ जीवन को पुरातन कहें, या समाज की सुख की खोज का अंतिम पड़ाव कहें?!
‘जुगवासि’यों की भावनाओं ने कई बार मन (और आँखों) को तरल कर दिया: “धर्मेश, दुनिया मे शांति बनाए रखना. हिंसा, झूठ और बेईमानी की जरूरत मानव समाज को न पड़े. धर्मेश, हमें छाया देते रहना, हमारे बाल-बच्चों को भी…”।
क्या इन बीस-बाईस सालों के बाद भी वे “सात धागों वाले जनेऊ” पहनते होंगे? इस प्रश्न का उत्तर जानने का साहस मुझमें नहीं है। राजनीति की समझ में मेरा आशावाद कहीं खो गया है।
धन्यवाद।