राज्य का प्रतिरोध, स्वराज का साधारण आधार

समय-समय पर कुछ ऐसे विद्वान होते हैं जो शास्त्रीय ज्ञान को साधारण लोगों के साथ जोड़ देते हैं. उनका काम यह सिद्ध करता है कि समाजशास्त्र जैसी कठिन विधा को अकादमिक दायरों से बाहर ला के समाज में रखा जा सकता है. जेम्स सी. स्कॉट ऐसे ही राजनीतिशास्त्री थे. आधी शताब्दी में फैले उनके अध्ययन के केंद्र में समाज और राज के संबंध ही रहे. 

जब जुलाई २०२४ में उनका देहान्त हुआ, तब तक वे अपनी विधा को अभिजन और शासक वर्ग की सीमा से बाहर खींच लाये थे. राज्यों और साम्राज्यों के हाशिये पर रहने वाले उपेक्षित लोगों को समझने की लंबी और कठिन साधना उन्होंने की, इन समाजों को उन्हीं की नजर से समझने का प्रयास किया. दैनन्दिन जीवन में किसानों के प्रतिरोध के छोटे-छोटे तरीके उन्होंने समझे, फिर समझाये. ये लोग कैसे राजकीय नियंत्रण से बचते हैं, कैसे वे अपनी स्वायत्तता बनाये रखते हैं, इसे उन्होंने अपने विश्लेषण का आधार बनाया. 

उनका विचारोत्तेजक लेखन और उनकी अनूठी अंतर्दृष्टि बनी थी सालों की यात्राओं में किये गहन शोध से, किसानों-ग्रामीणों के साथ खुले संवाद से. यह सब करते हुए राजनीति के अध्ययन को उन्होंने खूब समृद्ध किया. उनका काम दूसरे शास्त्रीय विद्वानों के लिए उपयोगी तो है ही, उसमें साधारण किसान-कारीगर और आदिवासी समाजों के लिए कई उपयोगी विचार मिलते हैं. इस काम की पृष्ठभूमि भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों से होती हुई इंडोनेशिया तक है. इसमें ‘ग्राम स्वराज’ जैसी शब्दावली नहीं है. किंतु आज के परिवेश में कहीं भी ग्राम स्वराज्य को समझने में जेम्स का शोध और लेखन बहुमूल्य है. 

अकादमिक यात्रा 

जेम्स सी. स्कॉट का जन्म १९३६ में अमेरिका के न्यू जर्सी राज्य के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ. इस समय तक सन 1929 की आर्थिक महामंदी बीत गयी थी. लेकिन उस दौर की डरावनी घटनाओं का गहरा असर अभी भी अमेरिका के मध्यमवर्ग के मानस पर बरकरार था. उनका परिवार शिक्षा का महत्त्व मानता था. उनके माता-पिता तो शिक्षित थे ही, उनके पैतृक परिवार के अधिकांश लोग भी शिक्षित थे. उनके चिकित्सक पिता विचार से निरीश्वरवादी थे, फिर भी उन्होंने अपने बेटे को ‘संडे स्कूल’ में बाइबल के आधार पर होने वाली ईसाई शिक्षा के लिए भेजा. इससे भी अधिक अचरज की बात यह थी कि उन्होंने बालक जेम्स को ‘क्वेकर’ नामक एक ईसाई पंथ के स्कूल में नियमित पढ़ाई के लिए भेजा. 

इस विद्यालय का जेम्स पर गहरा असर पड़ा. राज्य की ताकत और उससे पिसने वाले लोगों के प्रति उनमें सहानुभूति आयी. इसी क्वेकर स्कूल की गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए जेम्स ने रेल और बंदरगाहों पर काम करने वाले मजदूरों को करीब से देखा, अफ्रीकी अश्वेत समुदाय द्वारा चलाए ज़ा रहे संघर्ष को महसूस किया. आगे चल के उनके काम में जो राज्य की गहरी आलोचना प्रकट हुई, उस अराजक दृष्टि के पनपने में क्वेकर पंथ का प्रभाव था. उनकी मुखरता और वैचारिक स्वतंत्रता के बीज भी इस स्कूल में पाये जा सकते हैं. उन्होंने अपनी 1990 की पुस्तक ‘डॉमिनेशन एंड द आर्ट्स ऑफ़ रेजिस्टेंस’ (यानी ‘वर्चस्व और प्रतिरोध की कलाएँ’) इसी स्कूल को समर्पित की है. यह किताब तरह-तरह से दबाये हुए लोगों के प्रतिरोध के तरीकों को एक नयी दृष्टि से देखती है—किसान, गुलाम, अछूत, मजदूर, बंदी…

क्वेकर विद्यालय से पढ़ाई पूरी कर के १९५४ में जेम्स ने कॉलेज में दाखिला लिया अर्थशास्त्र पढ़ने के लिए. यहाँ कुछ ऐसा संयोग बना कि  बर्मा (अब म्याँमार) के आर्थिक विकास पर शोध-पत्र लिखने का काम उन पर आ पड़ा. इस दौरान इत्तिफ़ाक़ से दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ उनका गहरा रिश्ता बन गया, जिसे उन्होंने जीवनभर निभाया. एक फेलोशिप पर उन्हें बर्मा जाने का अवसर मिला. एक ओर वे वहाँ की राष्ट्रीय छात्र सम्मेलन से जुड़े रहे, वहीं कुछ अरसे तक अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सी.आई.ए. के लिए भी उन्होंने काम किया. 

इसके बाद येल विश्विद्यालय में उनकी पी.एच.डी. शुरू हुई, साथ ही एक और संयोग हुआ. यहाँ कैलकुलस की पढ़ाई को लेकर पढ़ाने वालों से मतभेद हो गया. इसलिए जेम्स ने अर्थशास्त्र विभाग छोड़ के राजनीतिशास्त्र में दाखिला ले लिया. इन दो घटनाओं ने उन्हें दक्षिण-पूर्व एशिया की राजनीति की ओर मोड़ दिया. पी.एच.डी. करते हुए कई जाने-माने शिक्षकों का उन पर प्रभाव रहा, जो उनके शुरुआती लेखन में दिखता है. 

पी.एच.डी. के बाद १९६७ से १९७६ के बीच जेम्स ने विस्कांसिन यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया. इसी बीच उनका दो साल फ्रांस में रहना हुआ. उनकी पत्नी को वहाँ कला इतिहास पर शोध करना था, जेम्स उनके साथ हो लिए. इस समय का सदुपयोग उन्होंने किया ऐसे इतिहासकारों का अध्ययन कर के जिन्होंने किसानों के प्रतिरोध पर लिखा था. 

इस पढ़ाई का नतीजा १९७६ में एक किताब की शक्ल में निकला: ‘द मॉरल इकॉनमी ऑफ द पेजेंट’ (यानी ‘किसान की नैतिक अर्थव्यवस्था’). यह पुस्तक खूब प्रसिद्ध हुई. इसी साल जेम्स अपने विश्वविद्यालय येल लौट आये, एक प्राध्यापक के रूप में. आगे चलकर यहीं पर उन्होंने कृषक जगत के अध्ययन का विस्तृत कार्यक्रम बनाया, जो आज भी ‘एग्रेरियन स्टडीज़ प्रोग्राम’ के नाम से चलता है. शास्त्रीय दुनिया में यह अपनी तरह का अनूठा केंद्र है जो तरह-तरह की संबंधित विधाओं में शोध करने वालों को जोड़ता है. 

रोजमर्रा का प्रतिरोध 

इस आखिरी किताब से उन्हें प्रतिष्ठा भी मिली और दृष्टि भी. बर्मा और वियतनाम में किसान संघर्ष के इतिहास के साथ अब फ्रांस में हुआ अध्ययन भी जुड़ गया था. छोटे किसानों के नैतिक मूल्य, उनकी सामाजिक-आर्थिक न्याय की समझ की गहन पड़ताल में वे जुट गये थे. निर्वाह की इस व्यवस्था में कृषक समाज का पूरा ताना-बाना लगा रहता है. इसे निभाने में उनके परस्पर संबंधों और परंपराओं की बड़ी भूमिका रहती है. जेम्स ने पाया कि किसान सबसे पहले अपने काम और जीवन में जोखिम घटाने की कोशिश करते हैं. खेती पर लगान या कर की राशि कितनी होगी यह एक सवाल है. इससे ज़्यादा महत्त्व इसका है कि राज्य या ज़मींदार को लगान चुकाने के बाद ख़ुद किसान के पास क्या बचता है ! उसके परिवार के गुजारे लायक वह होता है या नहीं? 

दक्षिण-पूर्व एशिया के कृषक समाजों का यह ढाँचा सदियों पुराना है. यह स्वरूप तेजी से टूटना शुरू हुआ यूरोपीय उपनिवेश के दौर में. औपनिवेशिक नीतियों के दबाव में सामाजिक सुरक्षा की यह पुरानी प्रणाली दरकने लगी. इसका स्थान लिया राज्य के एक आधुनिक प्रकार ने, जिसने एक पूँजीवादी प्रणाली का विस्तार किया. इस आधुनिक राज्य ने खेती को निर्वाह की बजाय मुनाफे और वाणिज्य के गणित में बदल दिया. किसानों को न्यूनतम आय के भी लाले पड़ने लगे, वे गरीबी और कर्ज के चंगुल में फँस गये. इस नये गणित ने उनका भूमि से संबंध भी  बदल दिया, वे अपनी ही जमीन पर काश्तकार या खेतिहर मजदूर में तब्दील होते चले गए. अब भूमि और श्रम निभाने के लिए नहीं, ‘जिंस’ यानी व्यापार और उपभोग की ‘वस्तु’ हो गये थे. यूरोपीय उपनिवेश के चंगुल में उभरे आधुनिक राज्य ने किसानों के शोषण और उनके संसाधनों के दोहन को बाकायदा कानूनी जामा पहना दिया. किसानों के प्रतिरोध की जमीन यही थी. 

यह सब उजागर करने वाला शोध १९८६ में एक किताब में प्रकाशित हुआ :  ‘वेपन्स ऑफ द वीक’ (‘कमजोरों के हथियार’). इसमें यह विस्तार से बताया गया कि एक मामूली किसान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में राज्य की दमनकारी नीतियों का विरोध कैसे करता है. किन तरीकों से वह राजकीय कारिंदों का सामना करता है. यह किताब जिस तरह बनी, उससे पता चलता है कि जेम्स दूसरे समाजशास्त्रियों और राजनीति के शोधकर्ताओं से अलग कैसे थे. यह शोध उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के किसानों के बीच रहकर किया, फिर सामग्री ले के अमेरिका लौट गये, वहीं पर इसकी पांडुलिपि तैयार की. लेकिन उसे प्रकाशित करने के पहले वे इसे ले के उन्हीं किसानों के बीच वापस गये और उसका आकलन करवाया. किताब की सामग्री और विश्लेषण पर किसानों के साथ चर्चाएँ की. इनके आधार पर किताब में फेरबदल की, उसे सुधारा, किसानों की बातों के अनुरूप बनाया, और उसके बाद ही पुस्तक का प्रकाशन हुआ. इस काम में किसानों को उनका पूरा श्रेय भी दिया गया है. ऐसा कहाँ देखने में आता है कि शास्त्रीय विद्वान साधारण लोगों को अपने लेखन का विषय भर न मानें, उन्हें अपने काम में भागीदार बनायें ! 

इस पद्धति ने जेम्स के काम में मौलिकता दी. वे खेतिहर समाज का मर्म और उसकी गरिमा उजागर कर पाये. उनके शोध और लेखन में कमजोर लोगों का कुछ कर गुजरने का माद्दा दिखता है, अपने हिसाब से जीने की कूवत जाहिर होती है. किसान समाज और दूसरे दबे-कुचले लोग जरूरत पड़ने पर राज्य का अनुकरण करते हैं, फिर भी अपने दैनन्दिन जीवन में उसके विरोध में संघर्ष जारी रखते हैं, यह जेम्स ने नयी नजर से बताया. 

किसान की अनदेखी के अभिलेख
एक और अहम बात पर उन्होंने प्रकाश डाला है – ऐसा क्यों है कि औपचारिक इतिहास में किसानों का विरोध दिखता ही नहीं? उनका शोध बताता है कि राज्य के अभिलेखागार खेतिहर समाजों के प्रतिरोध को इतिहास के पन्नों में या दर्ज नहीं होने देते, या गायब कर देते हैं. अधिकतर इतिहासकारों का स्रोत अभिलेखागार ही तो होता है ! 

जेम्स इस दिशा में आगे बढ़ते ही गये. सन १९९० में उनकी अगली किताब आयी, जिसका शीर्षक था ‘डॉमिनेशन एंड द आर्ट्स ऑफ़ रेजिस्टेंस’ (‘वर्चस्व और प्रतिरोध की कलाएँ’), जो उनके क्वेकर स्कूल को समर्पित थी. यह किताब वर्गों के संबंध पर बारीक नजर डालती है, उसमें सत्ता, प्रभुत्व, प्रतिरोध और अधीनता की धाराओं को जाँचती है. अधीन लोगों से उनका श्रम, उनकी सेवा और उपभोग के सामान लूटने वाली शोषण की व्यवस्था का संस्थागत आधार आधुनिक राज्य तैयार करता है. फिर भी दासता में पिसते हुए लोग प्रतिरोध की जमीन तैयार करते रहते हैं. चाहे वे अपने शोषकों के सामने दबे रहें, पर उनकी पीठ पीछे वे उस सत्ता की आलोचना करते हैं, उसका मखौल उड़ाते हैं. अफवाह, गप, लोककथा, गीत, हाव-भाव, चुटकुले और नाटकों में इसे अभिव्यक्त करते हैं. जेम्स ने इसे “सत्ताहीनों की अदृश्य राजनीति” कहा था. इसमें सत्ता के अंतर्विरोध और तनाव तो झलकते ही हैं, उसके विरोध में छिपी संभावनाएँ भी प्रकट होती हैं. 

राज्य से बचने का इतिहास
जेम्स  का ध्यान ऐसे समाजों की ओर भी गया जो राज्यों की सीमा पर या उसके पार रहना पसंद करते हैं. फिर चाहे वह राज्य का प्राचीन स्वरूप रहा हो, या यूरोपीय उपनिवेश का, और या नव-स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य का. इस ‘अराजकतावादी इतिहास’ का विश्लेषण करने वाली उनकी २००९ की पुस्तक का नाम है ‘द आर्ट ऑफ नॉट बीइंग गवर्न्ड’ (‘शासित न होने की कला’). इस किताब के आरम्भ में ही एक फ्रांसीसी विद्वान का कथन आता है – “यह कहा जाता है कि जिन लोगों के पास इतिहास है, उनका इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है. यह कहना भी उतना ही सच होगा कि जिनके पास इतिहास नहीं है, उनका इतिहास राज्य के विरुद्ध उनके संघर्षों का इतिहास है.” जेम्स यह पाते हैं कि राज्य-निर्माण पर लिखे गए अथाह साहित्य ने उन इलाकों और समाजों पर न के बराबर ध्यान दिया है जो राज्यहीनता की स्थिति में रहते थे, या जहाँ राज्य की मौजूदगी कभी भी प्रभावी नहीं रही. 

राजकीय दृष्टि से लिखा गया इतिहास राज्य की परिधि पर स्थिति लोगों को तारीख के हाशिये पर रखता है. जेम्स इतिहास लेखन की सीमा इंगित करते हुए बताते हैं कि जिन समाजों ने जितने ज्यादा दस्तावेज और पुरावशेष अपने पीछे छोड़े, इतिहास में वे उतने ही प्रभावशाली दिखे. राज्य या दौलत के हाशिये पर रहने वाले लोग अपने पीछे बहुत दस्तावेज या साक्ष्य नहीं छोड़ते. इसीलिए इतिहासकार उनके साथ उपेक्षा करते हैं. ऐसे लोग महज़ आँकड़ों में तब्दील हो जाते हैं. दरबारों और राजधानियों को केंद्र में रख के लिखी गयी तारीख को जेम्स ‘राज्य के दायरों का इतिहास’ कह गये हैं. इसी नाइंसाफ़ी के जवाब में उन्होंने ‘अराजकतावादी इतिहास’ की प्रस्तावना की. इसमें राज्य-निर्माण की यातनापूर्ण प्रक्रिया तो दिखती ही है, राज्य की बेगारी और लूट के चंगुल से बच निकलने का प्रतिरोध भी दिखता है. 

राज्य की धारणा और उसकी ‘ऐतिहासिक उपस्थिति’ को हम आत्मसात कर चुके हैं. जब जेम्स यह ध्यान दिलाते हैं कि मानव इतिहास का बड़ा हिस्सा राज्य के बिना गुजरा है, तब हमें सहसा यकीन ही नहीं होता है. दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई इलाकों के अधिकांश इतिहास में राज्य की गैर-मौजूदगी साफ दिखती है. जेम्स ने इस इलाके के बारे में कहा है कि यहाँ राज्य निरंकुश और अत्याचारी जरूर था, मगर उसकी उपस्थिति शाश्वत नहीं थी. इस इलाके के लिए उन्होंने ‘ज़ोमिया’ नाम का उपयोग किया, जिसे गढ़ा था उनके समकालीन इतिहासकार विलियम वान शेंडल ने. ‘ज़ोमिया’ में वियतनाम, कम्बोडिया, लाओस, थाइलैंड और म्याँमार के साथ-साथ पूर्वोत्तर भारत और चीन के चार प्रांत भी आते हैं. जेम्स का कहना है कि ज़ोमिया दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा भूभाग है जो आज भी किसी राष्ट्र-राज्य के दायरे में पूरी तरह समाहित नहीं किया जा सका है. 

आम तौर पर निर्वहन की संस्कृति का प्रकृति के साथ सीधा संबंध माना जाता है. जेम्स इसे एक कदम आगे ले के गये. उन्होंने कहा कि इन दोनों को राजनीतिक विकल्प के तौर पर भी देखा जाना चाहिए. यानी ये अनायास ही नहीं उभरे हैं. ये विकल्प हैं, जिन्हें लोगों ने सोच-समझकर चुना है. ज़ोमिया के पहाड़ों-पठारों पर रहने वाले लोगों को अलग से देखने की बजाय जेम्स ने उन्हें मैदान-घाटियों में स्थित राज्यों की तुलना में देखने की वक़ालत की, इनके जटिल संबंधों को समझने की भी. ज़ोमिया के समाज पहाड़ों में इसलिए रहते आये हैं, क्योंकि मैदान-घाटी के राज्यों से वे दूरी बना के रखना चाहते थे, अपनी स्वतंत्रता बनाये रखना चाहते थे. 

जेम्स स्कॉट ने रेल, टेलीफोन, तार, हवाईजहाज और हेलिकॉप्टर आदि को “दूरी मिटाने वाली प्रौद्योगिकी” के रूप में देखा. इनसे ‘ज़ोमिया’ के स्वायत्त लोगों और राष्ट्र-राज्यों के बीच सत्ता का संतुलन बदला है. राज्य की ताकत बढ़ी है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद इन तकनीकों की वजह से अब राज्य का प्रतिरोध कर पाना बेहद मुश्किल हो चुका है. (इस प्रसंग में हम मोहनदास गांधी की 1909 में लिखी गयी पुस्तिका ‘हिंद स्वराज्य’ में रेलवे की आलोचना को भी याद कर सकते हैं.) इन शक्तिशाली संसाधनों से लैस आधुनिक राज्य उन लोगों और जगहों पर नियंत्रण कर सके हैं, जो अब तक सभी राज्यों के काबू से परे थे. नियंत्रण की इस प्रक्रिया को राज्य ने विकास, आर्थिक प्रगति, साक्षरता का प्रसार, और एकीकरण जैसे नाम दिये हैं; किंतु इसका असल उद्देश्य हाशिये के लोगों, भूभागों और संसाधनों पर राज्य का नियंत्रण या एकाधिकार स्थापित करना है. 

जेम्स मानते हैं कि संप्रभुता की आधुनिक धारणा ने राष्ट्र-राज्यों को उनकी सीमाओं पर स्थित क्षेत्रों पर पूरा नियंत्रण स्थापित करने की प्रवृत्ति को बल दिया है. राज्य द्वारा इन क्षेत्रों में भू-स्वामित्व के अधिकार देने या ज़मीन का आवंटन करने से भी ज़ोमिया की पारंपरिक भूमि व्यवस्थाएँ टूटी हैं. मैदानी इलाकों में जनसंख्या की अभूतपूर्व बढ़त के कारण वहाँ से लोगों का परिधि पर स्थित इलाकों की ओर पलायन तेजी से बढ़ा है. इसे राज्य का प्रोत्साहन मिला है. इन बदलावों ने बीसवीं सदी में ज़ोमिया का चरित्र, जनसंख्या घनत्व, खेती, सामाजिक व्यवस्था को जड़-मूल से बदला है. 

पहले इन इलाकों में जीवन-निर्वाह के तरीके ऐसे थे, जिन से राज्य लगान या महसूल की उगाही नहीं कर सकता था. जैसे जंगल के कुछ हिस्सों में शिकार करना, मछली पकड़ना, खानाबदोशी, और ‘झूम’ खेती, जिसमें जंगल काट के एक हिस्से में फसल उगाई जाती है और वहाँ फिर जंगल उगने दिया जाता है. जवाब में आधुनिक राज्य ने हरसंभव तरीके से इन लोगों को झूम कृषि और खानाबदोशी छोड़ के गाँवों में स्थायी रूप से बसने के लिए विवश किया. 

(इसमें वन संरक्षण की दलील भी दी जाती है, जबकि झूम खेती करने वाले आदिवासी इलाकों में दूसरे क्षेत्रों की तुलना में कहीं घने जंगल आज भी खड़े हैं.) खेती में भी ऐसी फसलों पर जोर दिया गया है, जो निर्वाह की बजाय बाजार में बेचने के काम आती है. इनसे राज्य को लगान मिलने का रास्ता तो खुला ही, इन इलाकों के मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के तरीके भी राज्य को सौंप दिये. इसे कुछ विद्वान ‘आंतरिक उपनिवेशवाद’ भी कहते हैं. 

ज़ोमिया का प्रतिरोध 

ज़ोमिया के लोगों ने राजनीतिक मायनों में ही नहीं, सांस्कृतिक और वैचारिक जमीन पर भी राज्य का प्रतिरोध आरंभ से ही किया. जेम्स का कहना था कि ज़ोमिया के दुर्गम भूगोल की निर्णायक भूमिका रही है क्योंकि राज्य और उसकी सेना यहाँ पहुँच नहीं पाती थी. यहाँ के पहाड़ों में राज्य के चंगुल से बच के भागे लोगों ने शरण लिया. उन्होंने जीवनयापन और बसने के ऐसे तरीके, यहाँ तक कि अपना सामाजिक संगठन भी राज्य से बचने की लिए ही बनाया. खानाबदोशी, झूम खेती, समाज का विकेंद्रित संगठन, कठिन जगहों पर रहना, और लिखित के बजाय वाच्य संस्कृति पर जोर देना भी इसी रणनीति का हिस्सा है. झूम कृषि में भी ज़ोमिया के लोगों ने ऐसी फ़सलें चुनी, जिनका आकलन करना राज्य के लिए असंभव था, विशेषकर आलू, शकरकंद और शलजम जैसे कंद-मूल, जो सालों-साल जमीन के नीचे बचे रह सकते हैं और राज्य के लिए फायदेमंद नहीं होते. ये समाज सरल, छोटी और बिखरी हुई सामाजिक इकाइयों में रहे हैं. इनके भीतरी राजनीतिक-सामाजिक ढाँचे में समानता, स्वायत्तता और गतिशीलता पर जोर दिया गया है. 

उन्होंने लिखित संस्कृति और दस्तावेज को तो नकारा ही, साथ ही सभी तरह के लिखित इतिहास को भी स्वीकार नहीं किया; क्योंकि इनमें राज्य का आधार है. दूसरे इतिहासकारों के काम से जोड़ के जेम्स ने दिखाया कि कई जगहों पर जब औपनिवेशिक राज्यों के खिलाफ किसान विद्रोह हुए, तब उनका पहला निशाना होता था जमीन और लगान के दस्तावेज, रजिस्टर और कार्यालय; क्योंकि उनकी गुलामी का आधार अभिलेखों में तैयार किया जाता था, इसलिए बहुत-से विद्रोही सबसे पहले इन्हें जला देते थे. 

जेम्स सी. स्कॉट का शोध उन मूल अवधारणाओं पर सवाल करता है, जो समाज-विज्ञान में सर्वस्वीकृत हैं. इस दृष्टि में मनुष्य इतिहास को विकास की चरणबद्ध श्रृंखला के रूप में देखा गया है, जैसे वह प्रगति का ऐतिहासिक आख्यान हो. इसमें आखेट, खाद्य-संग्रहण और खानाबदोशी को विकास की आदिम अवस्थाएँ मान लिया गया है, जिन्हें छोड़ के मनुष्य खेती, गाँव और नगरों में आ के बसा. इसी विकासक्रम की उन्नत अवस्था राज्य और राष्ट्र-राज्य बता दी गयी. सभ्यता की सीढ़ी पर अलग-अलग समाजों को आँका जाने लगा. 

जेम्स की सधी हुई आँख को राज्य से बचने वाले सीमांत समाजों में राज्य के नियंत्रण का विकल्प दिखा. उन्होंने अपने जीवनभर के शोध से यही दिखाया कि ये समाज कुछ ऐसा जानते हैं; जो मनुष्य के मूल स्वभाव की ओर इशारा करता है; जो राज्य के चंगुल से बचने में अपने स्वराज की कल्पना करता है. यह सब उन्होंने उस समय में खोजा-लिखा जब राज्य पहले से अधिक शक्तिशाली और दमनकारी होता जा रहा है. उनके काम में दुनियाभर के शोषित और दमित लोगों को रोशनी दिखती रहेगी. 

उनके प्रभावशाली लेखन और चिंतन ने राजनीतिशास्त्र, नृविज्ञान और समाजशास्त्र को ही नहीं इतिहास, साहित्य, दर्शन जैसी विधाओं को भी प्रभावित किया है. शास्त्रीय जगत में प्रतिरोध की दृष्टि को बदला है. यह दिखलाया है कि प्रतिरोध केवल संगठित और बड़े पैमाने पर होने वाली घटनाओं भर में नहीं होता. वह रोजमर्रा के जीवन में भी रहता है. 

तुमचा अभिप्राय नोंदवा

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