आदिवासी स्वशासन

महात्मा गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ के द्वारा सत्ता के विकेंद्रीकरण को दृष्टि दी थी, क्योंकि उन्हें गाँव, लोग, उनकी सामुदायिक समझ और प्राकृतिक संसाधनों के तालमेल का अनुमान था. इस नजरिये को आगे बढ़ाते हुए जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के बाद आदिवासी समुदायों के कल्याण और विकास के समग्र दृष्टिकोण के तहत आदिवासी स्वशासन के पाँच सूत्र दिए. इन्हें ‘आदिवासी पंचशील’ के रूप में भी जाना गया. २ अक्टूबर, १९५४ को मुख्यमंत्रियों को उन्होंने एक पत्र लिखकर इन पाँच सूत्रों को अमल में लाने का सुझाव दिया: 

पहला, आदिवासी समुदायों की संस्कृति व पहचान का सम्मान किया जाए. साथ ही आदिवासी क्षेत्रों में प्रशासन और विकास के लिए आदिवासियों को ही प्राथमिकता दी जाए.
दूसरा,  आदिवासियों के भूमि व वन अधिकारों की रक्षा की जाए. साथ ही आदिवासियों को उनकी जमीन व वन संसाधनों पर अधिकार दिए जाएं.
तीसरा, आदिवासी क्षेत्रों में जबरन प्रशासन को न लादा जाए, बल्कि प्रशासन, आदिवासियों के सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों के साथ मिलकर काम करे.
चौथा, आदिवासी नेतृत्व के माध्यम से विकास को बढ़ावा दिया जाए और आदिवासियों को उनके मामलों को खुद संभालने की आजादी हो.
पाँचवाँ, आदिवासी विकास में मानव प्रगति को आर्थिक प्रगति का मानक बनाया जाए. यही नहीं, आदिवासियों की प्रगति का मूल्यांकन उनके चरित्र और संस्कृति के विकास से किया जाए. 

हालांकि, ये सिर्फ सूत्र बनकर ही रह गए. कभी अमल में नहीं लाए गये. 

अबुझमाड़ के भीतर बसे संगम गांव में कोटरी नदी के किनारे १० नवंबर १९८७ को हुए आदिवासी सम्मेलन में ‘भारत जन आंदोलन’ के जुझारू कार्यकर्ता फागूराम उबटे ने ‘मावा नाटे मावा राज’ की घोषणा की. यानी हमारे गांव में हमारी सरकार. इस  घोषणा के मूल विचार मैग्नाकार्टा जितने सशक्त थे. लेकिन, इस घोषणा और इसके इर्द-गिर्द होते रहे तमाम आंदोलनों के बावजूद विकास के नाम पर जारी गतिविधियों से लगता है कि आदिवासियों का अस्तित्व नकार दिया गया है. उनके इंसान होने पर भी संदेह है. यह तब है, जब देश में उनकी आबादी आठ प्रतिशत के आसपास है.

आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए किए गए पांचवीं और छठी अनुसूची जैसे संवैधानिक प्रावधानों को दरकिनार करने के रास्ते सरकार ने खोज निकाले हैं. सन १९९३ में आई भूरिया कमेटी रिपोर्ट में आदिवासी स्वशासन को लेकर कई सिफारिशें की गई थीं. १९९६ में पेसा (पंचायत उपबंध अनुसूचित क्षेत्र विस्तार अधिनियम) बना, ताकि आदिवासियों पर हो रहा अन्याय खत्म किया जा सके. इससे लगा कि आदिवासी सम्मान और स्वशासन की पुनर्स्थापना होगी, परंतु पेसा की मूल भावना को स्वीकारने के लिए हुक्मरान तैयार नहीं हुए. नतीजतन, इसे मूल रूप में किसी राज्य ने लागू नहीं किया. 

कृषि के बजाय उद्योगप्रधान व्यवस्था
आजादी के बाद जब देश की कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था को उद्योगप्रधान अर्थव्यवस्था में तब्दील करने का फैसला किया गया, तो संसाधनों के लिए जंगलों-नदियों-पहाड़ों के दोहन का सिलसिला चल पड़ा. आदिवासियों की बड़ी आबादी इन्हीं जंगलों, पहाड़ों में या नदी किनारे रहती आई है. अपने पारंपरिक पद्धतियों से वे प्राकृतिक संसाधनों की देखभाल भी करते हैं और जीवन के लिए  जरुरत मात्र ही धरती से लेते हैं. जब प्राकृतिक संसाधनों को राष्ट्रीय संसाधन करार दे दिया गया, तब उनके दोहन के लिए आदिवासियों के अस्तित्व को भी नजरअंदाज करना लाज़िम था. आजादी के बाद सरकारी परियोजनाओं से लाखों की संख्या में विस्थापन  हुए हैं, जिनमें मुख्यतः आदिवासी हैं. देश के अधिकांश जंगल, खनिज पदार्थ एवं जल संसाधन आदिवासी इलाकों में ही हैं. उद्योग और नगर इन सभी संसाधनों के दोहन के बिना चल ही नहीं सकते. इस दोहन की कीमत किसी न किसी को तो चुकानी पड़ेगी. ये कीमत वही समाज चुका रहे हैं, जहाँ ये संसाधन हैं, जिन्होंने इन संसाधनों को सँजोया है.

अंग्रेजों के कानून अब भी जारी
संविधान में अपेक्षा की गई थी कि नई औपचारिक राज व्यवस्था को आम जन के प्रति जवाबदेह बनाया जाएगा. हुआ ठीक उल्टा. पुरानी व्यवस्था को ही देश पर थोप दिया गया, खासकर आदिवासियों पर. 

१७९३ में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल बंदोबस्त, जिसे स्थायी बंदोबस्त भी कहा जाता है, लागू किया था. यह बंगाल, बिहार, और उड़ीसा में भूमि राजस्व व्यवस्था को तय करने का एक समझौता था. इस व्यवस्था के तहत, जमींदारों को भूमि का स्वामी माना गया, और उन्हें तय किया गया कि वे ईस्ट इंडिया कंपनी को कितना कर देंगे. भारतीय वन अधिनियम, १८६५ पहला ऐसा विधान था, जिसने ब्रिटिश सरकार को किसी भी वन क्षेत्र को सरकारी वन घोषित करने और उसके संरक्षण के लिए नियम बनाने का अधिकार दिया. इसी आधार पर १८७८ में भारतीय वन अधिनियम लाया गया. 

भारतीय वन अधिनियम के तहत वनों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था: आरक्षित वन, संरक्षित वन और ग्राम वन. अधिनियम ने ब्रिटिश सरकार को वनों पर नियंत्रण स्थापित करने का अधिकार दिया. अधिनियम में वनों से संबंधित अपराधों के लिए प्रावधान किए गए थे, जैसे कि अवैध कटाई, चोरी आदि. इस अधिनियम ने वन निवासियों के पारंपरिक अधिकारों को सीमित कर दिया, जिससे उन्हें अपने पारंपरिक जीवनयापन के तरीकों से वंचित होना पड़ा.

भारतीय वन अधिनियम, १९२७ ने वनों पर राज्य के नियंत्रण को और बढ़ाया. वनों पर आदिवासियों के अधिकारों को पूर्णतः नकार दिया. 

इन कानूनों और सहूलियत के हिसाब से समय समय पर किए गये संशोधनों के मार्फत पहले अंग्रेजी हुकूमत और फिर देसी सरकार, देशहित के नाम पर, जनता की जमीनों को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं निजी परियोजनाओं के लिए, देशहित के नाम पर, अधिग्रहीत करती रही हैं. इन परियोजनाओं में सेज, खदानें, कारखाने, बाँध, तेल-गैस स्रोत, संचार के सड़क, रेल, हवाईअड्डे, बंदरगाह जैसे साधन शामिल हैं. शहरों के विस्तार के लिए प्राकृतिक संसाधनों का लगातार दोहन किया जाता रहा है. इन इलाकों में दबे खनिजों पर देसी और विदेशी कंपनियों की लार टपकती रहती है. और तो और, विश्व बैंक एवं विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थान भी संसाधनों के दोहन में वित्तीय मदद करते रहते हैं.

संसाधनों के दोहन के विरोध का लंबा इतिहास
भारत में संसाधनों के दोहन का विरोध १९वीं सदी के प्रारंभ में ही शुरू हो गया था. विरोध के केंद्र में मूलतः आदिवासी इलाके थे. १९२१ में, ब्रिटिश सरकार ने टाटा को मुलशी पेटा में एक बांध बनाने के लिए अधिकृत किया, जिससे क्षेत्र के किसानों की जमीन डूबने लगी. किसानों ने अपनी जमीन खोने के डर से विरोध किया, और सेनापति बापट ने उनका नेतृत्व किया. लेकिन, उस लड़ाई में टाटा और सरकार जीत गए. तीन साल तक चले इस सत्याग्रह को भारत के पहले बांध-विरोधी आंदोलन के रूप में जाना जाता है। 

केरल के पलक्कड़ जिले में स्थित साइलेंट वैली राष्ट्रीय उद्यान में, १९७० के दशक में कुंतीपुझा नदी पर एक जलविद्युत परियोजना के निर्माण का प्रस्ताव था। Save Silent Valley नामक एक व्यापक जन आंदोलन ने इस परियोजना को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और १९८० में साइलेंट वैली को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया गया. 

झारखण्ड में कोइल और कारो नाम की नदीयों पर बाँध परियोजना का ५० के दशक में तयार किया गया खाका मुंडा आदिवासियों के विरोध की वजह से ये आज तक जमीन पर नहीं उतर सका है.  १९८५ में गढ़चिरोली के इचमपल्ली और बस्तर के भोपालपट्टनम में प्रस्तावित बांधों खिलाफ आदिवासी लोगों ने सफल आंदोलन किया था. 

नक्सलवाद की आड़ में सैन्य तैनाती
मौजूदा वक्त में आंदोलनों को विकास विरोधी और देशविरोधी करार दिया जा रहा है. विरोध करनेवालों को नक्सलवादी कहा जा रहा है. समाजशास्त्री और समाजकर्मी कहते हैं कि नक्सल उन्मूलन आंदोलन की आड़ में सरकार सीमा के बजाय आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर बीएसएफ समेत अर्धसैनिक बलों की तैनाती कर रही है. इसका मकसद विकास के नाम पर उद्योगों को प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की छूट को संरक्षण देना है. हालांकि, यह भी सही है कि प्राकृतिक संसाधनों के खिलाफ आवाज उठाने की वजह से माओवादियों को इन इलाकों में जड़ें जमाने का मौका मिल गया. इसे इस तथ्य से समझा जा सकता है कि देश का ‘रेड कॉरिडोर’ कहा जानेवाला ९९ प्रतिशत क्षेत्र आदिवासी बहुल है.

हिंद स्वराज
महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले में धानोरा तहसील मुख्यालय से ३ किमी दूर लगभग १०० परिवारों के ५१० सदस्यों वाला मेंढा (लेखा) गांव आदिवासी स्वशासन की मिसाल है. तीन दशक से अधिक समय पहले उन्होंने ‘दिल्ली-मुंबई में हमारी सरकार, हमारे गाँव में हम ही सरकार’ की घोषणा की थी. सन २०१३ में ग्रामसभा ने सर्वसम्मति से इसे ‘ग्रामदानी गाँव’ घोषित कर दिया, जो अभूतपूर्व था. यहां ग्रामसभा को ‘गाँव समाज सभा’ कहा जाता है,  जो पारंपारिक रूप से अलग है. यहां सभी फैसले विचार और बहसों के जरिये सर्वसम्मति से लिये जाते हैं. गांव के इस प्रयोग का महत्त्व इस बात से समझा जा सकता है कि सन २०१२ में तत्कालीन ग्राम विकास मंत्री जयराम रमेश जंगल पर निर्भर गाँवों की अर्थव्यवस्था के संरक्षण व विकास के लिए पारित वनाधिकार कानून की औपचारिक शुरुआत करने के लिए मेंढा आए थे. गांधीजी के नमक सत्याग्रह की तर्ज पर मेंढालेखा के लोगों ने वनोपज पर अधिकार के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन किया. हर घर के एक व्यक्ति ने जंगल से एक बाँस काटकर बेचा. सन २०१२ में गाँव से सटे १८०० हेक्टेयर जंगल पर ग्रामसभा को सामुदायिक वनाधिकार मिला. यहाँ की ग्रामसभा को विकास का रास्ता खुद चुनने और बनाने का अधिकार है. कोई परियोजना उनकी सहमति के बिना यहां नहीं आ नहीं सकती. अब यह गाँव गरीबी, बेरोजगारी तथा भुखमरी से मुक्त है. समाजकर्मी और समाजशास्त्री कहते हैं कि देश के सभी गाँवों के लिए इसे नजीर बनना चाहिए. 

लोक तंत्र यानी ‘मावा नाटे, माटे राज’
‘मावा नाटे, माटे राज’ आदिवासी जीवन के तौर-तरीकों, संसाधनों पर सामुदायिक नियंत्रण और सामुदायिक प्रबंधन का द्योतक है. भूमि की आदिवासी अवधारणा में धरती, घर, सामाजिक सरोकार, सहयोग, राजनीतिक व्यवहार्यता, सांस्कृतिक एकता, मिथक, प्रतीक व धर्म शामिल हैं. इसके उद्देश्य में श्रम आधारित समाज, प्रकृति के साथ सहजीवी संबंध, संसाधन का सामुदायिक अधिकार, पैदावार समेत समस्त उत्पादन और सभी कार्यों के सामुदायिक और एक-दूसरे के कल्याण करने की समझ, समान पारिश्रमिक की शोषणविहीन व्यवस्था, जरूरतमंदों में बिना ब्याजी कर्ज, अधिक उत्पादन का समाज में वितरण, महिला-पुरुष समानता आदि बातें शामिल रही हैं. यही समानता से भरी दुनिया की कल्पना है, जो मेंढालेखा में गाँव समाज सभा से शुरू होती है.

मेंढालेखा सिर्फ आदिवासी स्वशासन का नमूना नहीं है. वह लोकतंत्र को जीने की कला है. तंत्र में लोक को स्थापित करने का विचार है. इस विचार को लोग अमल में लाए हैं. इस व्यवस्था की पहली इकाई गाँव है और आखिरी इकाई राष्ट्र. वह राष्ट्र, जो ग्राम, नगर, शहर, महानगर, प्रांत के स्वराज का समुच्चय हो. सारी इकाइयाँ स्वाधीन, परंतु परस्पर पूरक हों. लोकतंत्र का सपना पूरा होने की राह यहीं से निकलती है.

तुमचा अभिप्राय नोंदवा

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