“काल है ईसा से ५० साल पूर्व. समूचा गॉल देश रोमन साम्राज्य के कब्जे में आ चुका है. अरे!…समूचा नहीं! एक छोटे-से गाँव में रहने वाले अजेय गॉलवासी अभी भी आक्रान्ताओं का डट के मुकाबला कर रहे हैं. जो रोमन छावनियाँ उस गाँव को घेरे हुए हैं, उनके सैनिकों का जीवन आसान नहीं है…”
ये शब्द फ्रांस में बनी ‘ऐस्ट्रिक्स’ कॉमिक्स के हर अंक के पहले पन्ने पर होते हैं. नये पाठकों को इस काल्पनिक संसार का परिचय देते हैं. कुछ वैसे ही जैसे ‘विक्रम और वेताल’ की हर कड़ी की शुरुआत एक ही दाँव से होती है. ‘गॉल’ फ्रांस का पुराना नाम है.
पन्ना पलटते ही इसके पाँच खास किरदारों से मुलाकात होती है. ऐस्ट्रिक्स और ओबेलिक्स, दोनों गाँव के लड़ाके हैं. गाँव के ‘ड्रूइड’, यानी ओझा, गेटाफिक्स एक ऐसा जादुई काढ़ा बनाते हैं जिसे पीने वाले में कुछ समय के लिए अतिमानवीय शक्ति आ जाती है. कैकोफोनिक्स नामक गायक है. और गाँव के साहसी मुखिया हैं, वाइटलस्टैटिस्टिक्स. इसके सामने वाले पन्ने से, हर अंक में, एक नयी कहानी, एक नया अभियान, एक नयी यात्रा शुरू होती है.
अनगिनत लोगों ने ऐस्ट्रिक्स कॉमिक्स से हास्य और रस पाया है, असीम आनंद भी. कोई साठ साल में इस श्रृंखला के चालीस-एक अंक निकले हैं. कहीं भी इस गाँव का नाम नहीं आता. पता नहीं क्यों इस अनूठी कृति के कर्ताओं ने इस गाँव को अनाम रखा. हाँ, मुझे इस अनाम काल्पनिक गाँव से यथार्थ के जटिलतम पक्ष समझने का विचार मिला. समाज और राज्य के संबंधों को समझने की कुंजी मिली, ग्राम स्वराज की भी.
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हमारे घर में अनेक मोटी-मोटी किताबें थीं, पर सभी बड़ों के मतलब की! या तो दहशत पैदा करने वाली अंग्रेजी में, या उससे भी ज्यादा डरावनी हिंदी में! हम बच्चे अपनी पसंद की किताबें या तो एक-दूसरे से माँग के पढ़ते थे, या पास की एक दुकान से किराये पर लाते थे. मैं हिंदी कॉमिक्स ही लाता जिनका एक दिन का भाड़ा शायद पच्चीस या पचास पैसे था, अंग्रेजी का एक रुपया. कभी-कभी, जब जेब में पूरा रुपया होता, तब अंग्रेजी कॉमिक्स ले आता. उनके चित्र आकर्षक लगते, हालाँकि अंग्रेजी समझ में कम ही आती.
तब उम्र कोई बारह की रही होगी. एक पड़ोसी के कहने से एक दिन ‘ऐस्ट्रिक्स’ कॉमिक्स उठायी. आकार में वह हिंदी कॉमिक्स से लगभग दुगुनी थी. एक तो महँगी – एक दिन का पूरा एक रुपया – और ऊपर से भाषा की उलझन! लंबे-लंबे विदेशी नाम रुकते ही नहीं थे. हिज्जे करने के लिए एक-एक अक्षर रुक-रुक के, बार-बार पढ़ना पड़ता. लेकिन पन्नों पर लिखावट कम ही थी. और चित्र इतने आकर्षक कि मैं रद्दी कागज पर पेंसिल से उनकी नकल उकेरता रहता था. हर पात्र का नाक-नक्शा कुछ दिनों में याद हो गया था.
जल्दी ही उस दुकान में रखा ऐस्ट्रिक्स का हर अंक पढ़ गया. फिर वापस ला-ला के ध्यान से पढ़ा. इस राग में पता ही नहीं चला कि कब मेरा अंग्रेजी का डर चला गया! वही लंबे-लंबे नाम कंठस्थ होते गये और गले से उतरते हुए दिल में घुस गये. फिर तो यारी-दोस्ती की गपशप में उनका संदर्भ आने लगा. जिस किसी को ऐस्ट्रिक्स कॉमिक्स पसंद थी उससे एक पल में दोस्ती हो जाती थी. अचरज होता था कि अगर ये नाम और कथाएँ अनुवाद की अंग्रेजी में इतनी बढ़िया हैं, तो मूल फ्रेंच में क्या होंगी!
बहुत बाद में दो पात्रों पर मेरा ध्यान गया. गाँव के ओझा गेटाफिक्स, जो जड़ी-बूटी से काढ़े बनाते हैं. उनकी विशेषता है वह जादुई काढ़ा जिससे पीने वाले में कुछ देर के लिए कमाल की ताकत आ जाती है. यह काढ़ा ही वह असहज साधन है जिसकी वजह से यह अनाम गाँव सहज बना रहता है, अपनी स्वतंत्रता, अपनी व्यवस्था बनाये रखता है. जिसकी वजह से रोमन सेना को उसके आगे बार-बार मुँह की खानी पड़ती है.
पर ओझा से भी अधिक कमाल का है इस गाँव का मुखिया, वाइटलस्टैटिस्टिक्स. उसका रहन सहन या मकान दूसरे गाँववासियों से किसी तरह अलग नहीं है. हाँ, जब वह मुखिया के रूप में बाहर निकलता है, तब अपनी युद्ध की ढाल के ऊपर खड़ा होता है, जिसे दो लोग कंधे पर उठाते हैं. दोनों में से कोई भी कभी भी बिना बताये ढाल छोड़ के चला जाता है! भूल जाता है कि उसके कंधे पर नेतृत्व का भारी वजन है! एक पल में मुखिया औंधे मुँह नीचे आ गिरता है. यह बार-बार होता है. मुखिया की निडरता के बारे में कहा जाता है कि आसमान के गिरने के अलावा उसे किसी का भय नहीं है! लेकिन अपनी पत्नी से वह डरता है. गाँव तो दूर, खुद अपने घर में भी उसका राज नहीं चलता! उसकी सत्ता को कोई गंभीरता से नहीं लेता. जैसे ही वह कोई गरजता हुआ भाषण देने के लिए तैयार होता है, वैसे ही ग्रामवासी खिसक लेते हैं.
आये दिन छोटी-छोटी बातों को ले के गाँव में मार-पिटाई होती है, जिसमें एक-के-बाद-एक हर आदमी कूद आता है. लेकिन जितनी जल्दी ये लोग रूठते हैं, उतनी ही जल्दी एक-दूसरे को मना भी लेते हैं. उनकी एकता का सूत्र है रोमन सेना का प्रतिरोध. आपस में वे कितना भी लड़ें, रोमन सेना के सामने वे एक-जुट हो जाते हैं. अपने मुखिया के नाम के नारे लगाते हैं, उसके सम्मान में लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं. जीत में भी सहज, ठीक वही बने रहते हैं जो वे सही में हैं. उन्हें अपनी स्वतंत्रता प्यारी है, रोमन साम्राज्य का विकास उनके लिए कोई मायने नहीं रखता. चाहे हालात कितने ही कठोर क्यों न हों, उस गाँव में खेल का माहौल रहता है. लीला भाव बना रहता है.
दूसरी तरफ इस अनाम गाँव को घेरे रोमन सेना की चार छावनियाँ हैं. शायद वे किसी दूसरे ब्रह्मांड में रहती हैं. यहाँ सब-कुछ असहज है. कोई भी वह नहीं है जो वह बतलाता है. हर कोई कुछ और बनने की जल्दी में है. हर सैनिक को एकता और अनुशासन का प्रदर्शन करना होता है, बात-बात में रोमन साम्राज्य का जयकारा करना होता है, एक-से कपड़े पहन के कतार में खड़ा होना होता है. हर सैनिक अपने अफसर को मन-ही-मन कोसता है. हर अफसर अपने से ऊँचे ओहदे वाले की चापलूसी करता है, और पीठ-पीछे उसे हटवा के उसका स्थान लेने का षडयंत्र करता रहता है. यहाँ तक कि इस साम्राज्य के सम्राट जूलियस सीजर तक को अपने दरबारियों पर संदेह बना रहता है. क्या पता कौन उसे किस वक्त धोखा दे बैठे! दरबारी भी उसकी शान में कसीदे पढ़ते रहते हैं, एक-दूसरे से होड़ करते हैं, उसकी चमचागिरी करने के लिए. सैन्य नौकरशाही की अदृश्य बेड़ियों में हर कोई बंधा रहता है. ऊपर से गॉलवासियों की मार पड़ती ही रहती है! ऐस्ट्रिक्स कॉमिक्स का हास्य कई स्तरों पर काम करता है. वह केवल एक छोटे-से गाँव के एक विराट साम्राज्य से टकराने तक सीमित नहीं है. इसमें मनुष्य की मूल अवस्था के द्वंद हैं. इस कसमसाहट से तने हुए कैनवास के ऊपर दो कमाल के कलाकारों ने अपनी छोटी-छोटी कहानियों के रंग बिखेर दिये हैं. इस कॉमिक्स का परिवेश दो हजार साल पुराना है. इसमें कुछ भी समकालीन नहीं है. फिर भी, इसके चुटकुलों पर हमेशा-हमेशा ठहाके लगते रहेंगे. क्योंकि ये हमें इन्सान की असलियत से रूबरू करते हैं. और हमारी मूल अवस्था कभी बदलती नहीं है, चाहे हमारे आस-पास का संसार कितना भी बदल जाए. इसीलिए ऊँचा कल्पज साहित्य यथार्थ के बारे में कभी-कभी वह कह जाता है जो अकादमिक शोध और तथ्यज लेखन में नहीं कहा जा सकता.
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विश्वविद्यालय में एम.ए. करते समय मुझे एक गैर-सरकारी बैंक में काम करने का अवसर मिला. कॉरपोरेट दुनिया को भीतर से देखा. भरी गर्मी में टाई और सफेद कमीज पहन के दिल्ली की दूषित हवा में घूमा. दफ्तर के भीतर ए.सी. की ठंडी हवा तो रहती थी, लेकिन हर किसी की हवा खिसकी रहती थी, अपने बॉस के डर में. हर रोज हिसाब-किताब होता था कि किसने कितने का धंधा किया. हर अवसर के लिए होड़ लगती. मुझे ऐसा लगता था कि रोमन सेना में भर्ती हो गया हूँ. दो-तीन महीने में ही वहाँ से मुक्त हो गया और तय किया कि फिर कभी कॉरपोरेट दुनिया में काम नहीं करूँगा.
साहित्य की पढ़ाई चल रही थी. जैसे ही पूरी हुई, एक सहपाठी किसी अखबार में लग गया. उसी के साथ-साथ मैं भी वहीं पहुँच गया. फिर, जल्दी ही, एक ऐसी पत्रिका में आ गया जो पर्यावरण और विज्ञान की दृष्टि से देश और समाज को समझती थी. यहाँ नियमित रूप से सबसे कठिन विषयों पर गहराई से खोज-बीन कर के लिखा जाता था. काम में मनोरंजन जैसी कोई भी चीज नहीं थी. बड़ी कठोरता से काम करवाया जाता था. फिर भी, यह काम मुझे सुहाता था, क्योंकि यह पत्रिका हमें उन विषयों को समझने-समझाने का मौका देती थी जिनकी ओर दूसरे प्रकाशन देखते तक नहीं थे. प्रकृति और संस्कृति को समझने के नित-नये तरीके मिलते थे. अध्ययन, शोध और रिपोर्टिंग के लिए लंबी-लंबी यात्राओं का जतन भी करना पड़ता था.
कुछ समय बाद रिपोर्टिंग में अपने विषय को चुनने का मौका मिला. मैंने खेती-किसानी और आदिवासी समाज पर खोजने-लिखने का वरण किया. मैं नगरों में बड़ा हुआ था, और ऐसे लोगों के प्रति आकर्षण था जो प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं, चाहे वे ग्रामीण हों और या जंगल में रहने वाले आदिवासी. उसी समय दो नये राज्य बने थे, झारखंड और छत्तीसगढ़. दोनों में ही आदिवासी लोग बड़ी संख्या में हैं. इन दोनों राज्यों में मेरा आना-जाना बढ़ने लगा. आदिवासियों को समझना आसान नहीं होता. उनका रहन-सहन, भाषा, खान-पान… सभी कुछ अलग लगता है.
कॉमिक्स के हर अंक में ऐस्ट्रिक्स और ओबेलिक्स किसी नयी जगह अपना कर्तव्य निभाने जाते हैं. हर अनजान जगह पर ओबेलिक्स को वहाँ के लोगों का रहन-सहन समझ ही नहीं आता. इससे एक चुटकुला निकलता है जो हर अंक में होता है. ओबेलिक्स अपनी खोपड़ी ठोंकते हुए कहता है, “ये लोग पागल हैं!” ओबेलिक्स जितना ताकतवर है, उतना ही भोला और अनाड़ी भी है. उसके किरदार में यह दिखता है कि सहज रूप से मनुष्य उसी को सत्य मानता है जो उसके लिए परिचित है. अपरिचित लोग और परायी बातों के प्रति हम आसानी से दुराव रख लेते हैं.
इसी तरह आदिवासियों को देखने के कुछेक चालू, परिचित तरीके हैं. सबसे प्रचलित नजरिया उन्हें जंगली मानता है. इसमें आदिवासी लोग सभ्यता के पहले की अवस्था में फँसे हुए हैं. उनका विकास नहीं हुआ है, उन्हें ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति का बोध नहीं है. या तो उनके प्रति घृणा होती है, या दया कर के उनका उद्धार करने की बात होती है, चाहे वे लोग खुद ऐसा न चाहते हों. हाँ, इस दया भाव के पीछे केवल परोपकार नहीं है, कुछ लोगों का हानि-लाभ भी है. भारत के अधिकांश घने जंगल आदिवासी-बहुल इलाकों में ही बचे हुए हैं. इनकी लकड़ी पर सभ्य लोगों की नजर लगी रहती है. इस जमीन के नीचे कोयला और लोहे के खनिज भी हैं, जो आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था का ईँधन हैं. आज उद्योग का विकास ही राष्ट्र का विकास माना जा चुका है. इसलिए जो आदिवासी अपनी जमीन पर अपने पारंपरिक तरीकों से जीना चाहते हैं, उन्हें रूखी आँख से देखा जाता है, उन्हें राष्ट्रीय विकास में भी बाधक कहा जाता है.
इससे ठीक उलटी एक और दृष्टि है. उसमें आदिवासी लोग प्राकृतिक जीवन के आदर्श माने जाते हैं. उन्हें निस्वार्थ और भोला बताया जाता है, जैसे वनों पर बनी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों में वन्य प्राणियों को बताया जाता है. ऐसा साहित्य और फिल्में आसानी से मिल जाती हैं जिनमें आदिवासियों को आदर्शवादी आँखों से देखा जाता है, उनके और उनकी जीवनशैली के संरक्षण की गुहार की जाती है. इसमें वे लोग किसी प्रदर्शनी के पात्र लगते हैं. ऐसे बेसहारा लोग जिन्हें प्रकृति के साथ मिटाया जा रहा है! जिन्हें बचाना बाहर के लोगों की जिम्मेदारी है! अगर पहली विकास वाली दृष्टि में नजर रूखी-सूखी रहती है, तो दूसरी आदर्शवादी आँख में इतना पानी रहता है कि नजर धुंधली हो जाती है.
जब आदिवासी इलाकों में घूमना शुरू किया, तब मेरी आँख में जरा-सा अनाड़ी आदर्शवाद था. किंतु जल्दी ही बी.के. रॉय बरमन जैसे समाजशास्त्री से मिलना हुआ. जब उनसे पहली मुलाकात हुई तब उन्होंने मुझे न केवल टोका, बल्कि डाँटा भी. उनके अनुभव के सहारे मेरी समझ धीरे-धीरे साफ होने लगी. उन्होंने मुझे गहरे शास्त्रीय अध्ययन से विचार और बढ़िया सामग्री लेने के लिए तैयार किया. अपार अध्ययन और शोध के साथ-साथ उन्होंने लंबे समय तक आदिवासी समाजों के भीतर रह के उनका विश्वास जीता था. जिस समय नगालैंड के हथियारबंद विद्रोहियों ने भारत सरकार के साथ सुलह की बात शुरू की, तब बी.के. राय बरमन की मध्यस्थता की महत्वपूर्ण भूमिका थी.
कुछ और लोग मुझे मिलते गये जिन्होंने आदिवासी समाजों में रह के कई बढ़िया काम किये थे. जिनके पास या तो गहन शास्त्रीय विद्या थी, या आदिवासियों के साथ जी के उन्हें समझा था, या दोनों थे. ऐसे लोगों के पास मैं अपना काम ले के जाता, और वे लगातार मेरा मार्गदर्शन करते. उनसे जो सीखता, बढ़िया सामग्री पढ़ के जो समझता, उसे अपनी यात्राओँ के अनुभवों की कसौटी पर कसता.
धीरे-धीरे मुझे दोनों ही दृष्टियों का दोष साफ दिखने लगा. दोनों ही आदिवासियों को सहज मनुष्यता के झरोखे से नहीं देखती हैं. एक में तिरस्कार है, दूसरी में आदर्शवाद! न सूखी आँख से साफ दिखता है, और न आँसुओं से भरी आँख से ही. उसके लिए तो आँख के भीतर ठीक मात्रा में गीलापन होना चाहिए. ऐस्ट्रिक्स के अनाम गाँव में न दीनता है, और न किसी तरह का आदर्शवाद ही. न तो उस गाँव को तरक्की करनी है, और न उसके दरवाजे बाहर वालों के लिए बंद हैं.
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कुछ मुलाकातें याद रहती है. कुछ मुलाकातें हमें बदल देती हैं. सोमा मुंडा से मिलना ऐसा ही था.
एक बाँध परियोजना के बारे में जानने के लिए उनके गाँव लोहाजिमी पहुँचा था, जो रांची के दक्षिण के खूँटी जिले में आता है. यहीं कोइल और कारो नाम की दो नदियाँ हैं. इन पर बाँध बनाने की योजना १९५०-६० के दशक से चल रही है, जिस समय एक जवान सोमा मुंडा भारतीय सेना में दाखिल हुआ था. चीन के साथ १९६१ के युद्ध में सोमा लड़े, १९७१ में पाकिस्तान के साथ भी. सेना में सेवा की अवधि पूरी करने के बाद जब १९७६ में वे अपने खेत संभालने अपने गाँव लौटे, तब गाँव पर खतरा बन आया था. कोइल-कारो पर बाँध बनाने के लिए वहाँ के लोगों को विस्थापित करने की कोशिश चल रही थी. लोहाजिमी जैसे दो सौ से ज्यादा गाँव बाँध की डूब में आने वाले थे. इसके विरोध में वहाँ के मुंडा आदिवासियों ने पॉलुस गुड़िया की अगुआई में कोइल-कारो जन संगठन बनाया था. पॉलुस गुड़िया के गुजर जाने के बाद सोमा मुंडा इस आंदोलन के नेता थे.
सोमा मुंडा से बात करना एक अनोखा अनुभव था. शांत भाव से वे लगातार कह रहे थे कि बाँध नहीं बनेगा. मैंने पूछा कैसे रोकेंगे? पुलिस आएगी, उनके पास बंदूकें होंगी. एकदम शांत स्वर में उन्होंने कहा कि दो साल पहले भी पुलिस आयी थी, जोर-जबरदस्ती करने. तपकरा गाँव में पुलिस की गोलियों से आठ लोग मर गये थे. अगर फिर पुलिस आयी, तो फिर मुंडा नगाड़ा बजेगा और चार मिनट में पाँच हजार लोग इकट्ठे हो जाएँगे. उनमें से हरेक अपनी जान देने के लिए तैयार होगा, इसमें सोमा मुंडा को लेशमात्र भी संदेह नहीं था.
उनका आत्मविश्वास देख के मेरी हवा खिसक गयी थी. यह वही तपकरा गाँव है जहाँ १९४६ में आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार ने गोलियाँ चलवायी थीं. पृथक राज्य के लिए वर्षों चले संघर्ष के बाद साल २००० में छोटा-सा झारखंड बना और बनने के अगले ही साल तपकरा में फिर गोलीकांड हो गया.
सोमा मुंडा का घर वहाँ के किसी दूसरे घर से अलग नहीं था. उनका हाव-भाव, उनके कपड़े-लत्ते, उनकी बोली से ऐसा कतई नहीं लगता था कि वे इतने ताकतवर आंदोलन के निर्विवाद नेता हैं. उनके कहे पर उनके लोग जान देने के लिए तैयार हैं. इस सैनिक के कहने पर ही आंदोलन हर तरह से अहिंसक बना रहा है. कोइल-कारो बाँध आज तक बन नहीं सका है.
इसके बाद भी जब कभी आदिवासी गाँवों में आना-जाना हुआ, तब देखा कि वहाँ का मुखिया किसी भी तरह अपने लोगों से अलग नहीं होता. राजनीति में तो नगर पंचायत या वार्ड के नेता भी अपने बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग लगवाते हैं. आदिवासी गाँवों में यह नहीं दिखा. गाँवों के भीतर जो मन-मुटाव होते हैं, उनका निपटारा गाँव के भीतर हो जाता है. उसके लिए बगल के गाँव से गुंडे बुला के मार-पिटाई नहीं करनी पड़ती. यह भी दिखने लगा था कि आदिवासी आम तौर पर शांत स्वर में बातचीत करते हैं, उसमें अत्यधिक राग-द्वेष नहीं होता. क्योंकि आदिवासी जीवन उस प्राकृतिक अवस्था के करीब है जिसने हमें बनाया है, इसलिए उसके मूल्य भी सहज हैं. वहाँ बहुत धन या यश कमाने की इच्छा नहीं दिखी. अपने यथार्थ से अलग दिखने की, किसी और को प्रभावित करने की इच्छा भी नहीं. अपने लोगों के साथ अपनापन भी खूब दिखा. शारीरिक श्रम तो यहाँ हर कोई करता है, चाहे खेती हो या मकान की मरम्मत हो या दूर किसी जगह तक पैदल चल के जाना हो.
ऐसा नहीं है कि सभी आदिवासी एक-से होते हों. दो-एक बार ऐसा भी हुआ कि किसी आदिवासी ने दीन भाव से मुझसे धन माँग लिया. ऐसी जगहें भी दिखीं जहाँ के लोग केवल कहने को आदिवासी थे. बाहरी संस्कृति और विकास ने उन्हें बदल दिया था. ऐसे भी जो अपनी भाषा तक भूल चुके थे. आदिवासी जीवन सामाजिकता पर आधारित है, और समाज प्राकृतिक संस्था है. प्रकृति से निकली चीजें कभी एक-सी नहीं होती, वैसी तो बिल्कुल नहीं जैसी किताब पढ़ के या फैक्टरी चला के बनायी जा सकें. हर कुनबा, हर गाँव, हर जनजाति के भीतर भी अंतर दिखते हैं और दूसरे आदिवासियों की तुलना में भी. लेकिन मैं जहाँ भी गया वहाँ निस्पृहता तो दिखी ही. यह तो साफ था कि उन लोगों को बहुत कुछ कमाना-खाना नहीं है, न ही दुनिया का खजाना लूट के अपना घर भरना है. न महत्वाकांक्षा दिखी, और न किसी तरह के असाधारण गौरव की इच्छा. जहाँ घमंड न हो वहाँ ग्लानि और अपराध बोध भी नहीं रहता. आज तक किसी आदिवासी महिला या पुरुष से मैंने औपचारिक धन्यवाद या क्षमा याचना नहीं सुनी, न ही किसी दूसरी तरह का दरबारी व्यवहार! वहाँ आत्मसम्मान के लिए हुँकारना-फुफकारना नहीं पड़ता, न ही अपना स्वाभिमान बढ़ाने के लिए किसी दूसरे को नीचा दिखाना पड़ता है. वहाँ गरिमा साधारणता में रहती है.
अभिवादन भी एक ही होता है, चाहे सुबह हो या रात, सुख हो या दुख, परिचित हो या अपरिचित. झारखंड, ओडीशा और छत्तीसगढ़ में केवल ‘जोहार’ चलता है. किसी से कुछ लेने या देने में कोई टेढ़ या गाँठ नहीं दिखती. आदिवासी अर्थव्यवस्था मुनाफे या अशुभ लाभ पर आधारित नहीं रही है. जाहिर है, उसमें हिसाब-किताब और नफा-नुकसान भी नहीं है. उसके मूल्य निर्वाह के हैं. साधन उतने ही इस्तेमाल होते हैं जितने जीवन और संबंध निभाने के लिए जरूरी हों. कृतज्ञता का भाव तो रहता है, लेकिन सृष्टि के प्रति, क्योंकि जो कुछ आता है वह प्रकृति में बिराजते उनके आराध्य से ही तो आता है! अगर पुण्य का पसारा न हो, तो पाप का बोझ भी नहीं उठाना पड़ता. जिस स्थितप्रज्ञ भाव की बात पढ़ी थी, भजनों में सुनी थी, उसका व्यापक सामाजिक रूप मुझे केवल आदिवासी गाँवों में ही दिखा.
बचपन से यह पढ़ा-सुना था कि सभ्यता लिखने-पढ़ने से आती है. पर आदिवासियों जैसी सहज सभ्यता मुझे और कहीं नहीं दिखी. इसलिए अचरज होता था. आदिवासी समाजों में अपने इतिहास का बोध नहीं है. वह तो बी.के. रॉय बरमन जैसे बाहर से आये विद्वानों ने पिछले दो-तीन शताब्दी के लिखित प्रमाणों से बनाया है. उन्होंने यह दिखलाया कि आदिवासी समाजों में अपनी-अपनी तरह का लोकतंत्र रहा है, अपनी-अपनी तरह का स्वराज्य भी. उनकी गौरव गाथा में असीम वीरता, साहस और बलिदान है. लेकिन उसकी वे डींग मारते नहीं मिलते. फिर भी, मुझे यह समझ नहीं आता था कि पढ़े-लिखे लोगों से बहुत पुराना संपर्क होने के बावजूद आदिवासी समाजों ने अपना लिखित इतिहास खुद क्यों नहीं बनाया! लिख के अपनी सामाजिक स्मृति क्यों नहीं बनायी!
आदिवासियों को जिन दो दृष्टियों से देखा जाता है, मेरी यात्राओं और अनुभवों ने मुझे उन दोनों से ही दूर कर दिया. मुझे उन्हें धिक्कार के उनसे कुछ छीनना नहीं था, न ही उन्हें आदर्शवाद के संग्रहालय में बैठा के उनका संरक्षण करना था. लेकिन उनकी जीवन पद्धति से ईर्ष्या तो होने लगी थी. ऐसा लगता था कि अगर आदिवासियों के बारे में लिखूँगा, तो वहाँ आने-जाने को मिलता रहेगा. क्या पता उनके सहज सामाजिक आनंद के तरीके मैं भी सीख लूँ! जैसा उनका जीवन रहता है, वैसा ही भाव मेरे जीवन में भी हो, ऐसी अभिलाषा उठने लगी थी.
पता नहीं कब मैं अपने मन के भीतर आदिवासी गाँवों को ऐस्ट्रिक्स के अनाम गाँव से जोड़ने लगा. दोनों में स्वायत्तता का कोई विकल्प है ही नहीं. अपनी जीवन पद्धति को किसी कीमत पर न छोड़ने का संकल्प! बाहर वालों से मिलना-जुलना और वहाँ घूमने-फिरने जाना, लेकिन अपने परिवेश में ही स्थित रहना! आदिवासी समाज तरह-तरह की राजसत्ता से बिना डरे अपनी जमीन पर डटे रहे हैं, अपनी स्वतंत्रता के लिए युद्ध भी किये और बलिदान भी दिये. राज्यों और साम्राज्यों से लड़ने के लिए चाहे उनके पास कोई जादुई काढ़ा न रहा हो, पर वीरता और आत्मनिर्भरता तो वैसी ही थी.
फिर अपने आप पर हँसी आ जाती! कहाँ फ्रांस से निकली एक कॉमिक्स की कपोल-कल्पना जो किराये की किताबों में घर बैठे मिल गयी! और कहाँ हिंदुस्तान का यह आदिवासी संसार, जिसका केवल परिचय पाने भर के लिए मुझे लंबी यात्राएँ करनी पड़ी, शास्त्रीय विद्वानों का शोध-अनुसंधान समझना पड़ा!
कल्पज साहित्य और तथ्यज साहित्य में कहाँ का मेल!
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खेती-बाड़ी पर पढ़ते-समझते हुए अमेरिका के एक विद्वान के काम पर मेरा ध्यान गया: जेम्स सी. स्कॉट. वे एक बड़े विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्राध्यापक थे. उनका अनुसंधान और लेखन कोई पाँच दशक में फैला हुआ है. उन्होंने ऐसे खेतिहर समाजों पर शोध किया जो शताब्दियों से किसी भी राज्य के नियंत्रण से बाहर रहते आये हैं. ऐसे आदिवासी-खेतिहर समाज तिब्बत, दक्षिणी चीन और भारत के पूर्वोत्तर से होते हुए इंडोनीशिया तक पाये जाते हैं. एक विद्वान ने इस क्षेत्र को ‘ज़ोमिया’ का नाम दिया था. यहाँ की कुछ भाषाओं में ‘ज़ो’ का मतलब ‘ऊँची, सुदूर जगह’ होता है और ‘मी’ यानी लोग. ‘मिज़ोरम’ और ‘ज़ोमी’ इससे जुड़े शब्द हैं.
जेम्स स्कॉट का शोध इसी भूभाग में रहा. उन्हें पता लगा कि यहाँ रहने वाले लोगों ने सोच-समझ के पहाड़ों और पठारों के दुर्गम इलाकों में रहना चुना. उन्हें किसी भी राज्य का अधिपत्य स्वीकार नहीं था. वे किसी भी कीमत पर स्वराज्य को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने यह याद रखा कि हर साम्राज्य सुविधा का लालच दे कर, युद्ध की हिंसा से डरा कर लोगों को अपने सामने झुकाता है. उन्होंने सोच-समझ के घोर असुविधा का जीवन अपनाया, क्योंकि सुविधा का दासता से संबंध उन्हें पता था. उन्हें न तो लगान-महसूल देना था, न अपने युवकों को जबरदस्ती किसी सेना में भर्ती हो के लड़ने के लिए भेजना था, न किसी राजा या राज्य की बेगारी करनी थी, और न ही महामारियाँ फैलाने वाले नगरों और गाँवों में रहना था.
जेम्स स्कॉट ने अपने व्यापक शोध से यह दिखाया कि ये समाज किसी तरह के लिखित इतिहास या हिसाब-किताब को स्वीकार नहीं करते हैं. अपनी स्वायत्तता बनाये रखने का यह उनका तरीका रहा है. यही नहीं, उन्होंने खेतिहर समाजों के विद्रोह का इतिहास खोज निकाला. ये इन्कलाब ऐसे राज्यों और साम्राज्यों के खिलाफ थे जो उन्हें गुलाम बनाना चाहते रहे हैं. जेम्स स्कॉट ने दिखाया कि ऐसे कई संग्रामों में खेतिहर समाज सबसे पहले जमीन की मिल्कियत के दस्तावेज जलाते हैं. क्योंकि वे जानते हैं कि राज्य-साम्राज्य अपने कानून और अभिलेखों का हवाला दे के ही उन्हें दास बनाना चाहते हैं.
मुझे लगा कि शायद भारत के आदिवासी समाजों ने भी इसीलिए अपना लिखित इतिहास नहीं बनने दिया. भाषा शास्त्रियों ने यह दिखलाया है कि झारखंड-ओडीशा-बंगाल के आदिवासी समाजों की भाषाओं का पुराना संबंध ‘इन्डो-चाइना’ कहे जाने वाले म्याँमार से ले के वियतनाम तक के इलाके के खेतिहर-आदिवासी समाजों से रहा है. आधुनिक आनुवांशिकी से भी ऐसे ही प्रमाण निकल रहे हैं. इससे यह लगने लगा था कि हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से के आदिवासी-खेतिहर समाज यूँ ही जंगल के भीतर नहीं रहते. यहाँ रहने की असुविधा उन्होंने इसलिए अपनायी क्योंकि किसी तरह के राज्य के अधीन रहना उन्हें मंजूर नहीं था. यानी ये असभ्य और जंगली लोग नहीं रहे हैं. बल्कि ऐसे आत्मनिर्भर समाज रहे हैं जो अपनी स्वतंत्रता के लिए बड़ी-से-बड़ी कीमत चुका सकते हैं. तब समझ में आया कि सोमा मुंडा को अपने अहिंसक नेतृत्व पर इतना सरल और अडिग विश्वास कैसे था! कैसे वे इतनी आसानी से कह सकते थे कि हम लोग मर जाएँगे, लेकिन अपने पूर्वजों की जमीन और अपनी सांस्कृतिक धरोहर नहीं छोड़ेंगे!
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कॉलेज में था जब महात्मा गांधी की १९०९ में लिखी पुस्तिका ‘हिन्द स्वराज्य’ पढ़ी. उसमें किसी भी तरह की राजनीतिक सत्ता को केंद्र में नहीं रखा गया था. न किसी भी तरह के आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत की हिमायत ही थी. गांधीजी सत्ता को नीचे से ऊपर जाते हुए देखना चाहते थे. किसी तरह के केंद्रीय राज्य या साम्राज्य में उन्हें स्वराज्य का रास्ता नहीं दिखता था. इसीलिए गांधीजी की राजनीतिक दृष्टि समझने में इतनी कठिन रही है. उसका कुछ आकर्षण हर तरह के राजनीतिक सिद्धांत को मानने वाले लोगों में होता है, पर उससे सहमति नहीं हो पाती.
राज्य की सत्ता को ही परम मानने वाले, ‘हिन्द स्वराज्य’ को एक आदर्शवादी विचार मानते हैं जो आज के संसार में अव्यावहारिक है. ‘सभ्यता’, ‘आधुनिकता’, ‘विकास’ और ‘प्रौद्योगिकी’ जैसे विचारों की गांधीजी ने ऐसी गहरी आलोचना की है, कि उसे स्वीकार करना ज्यादातर लोगों को असंभव लगता है. इसे ले कर कई तरह के विद्वानों में कई तरह के विचार और तर्क चलते रहते हैं. मैंने मान लिया था कि यह शास्त्रीय विद्वानों के मतलब का विषय ही है, साधारण लोगों के बस की बात नहीं है.
किंतु यह भी साफ था कि ग्राम स्वराज का सजीव रूप समझने के लिए हमें बहुत मोटी-मोटी किताबें पढ़ने की जरूरत नहीं है. कुछ समय आदिवासी गाँवों में रहना भर पर्याप्त है. मुझे नहीं पता गांधीजी होते, तो इसे कैसे देखते. पर आदिवासी जीवन में उनके विचार और दृष्टि की ध्वनि सुनाई पड़ती है. गढ़चिरोली के लेखा क्षेत्र के मेंढा नामक आदिवासी गाँव ने जो ग्राम स्वराज को चरितार्थ किया है, उसमें भी. देवाजी तोफा और मोहन हीराबाई हीरालाल को गांधीजन कहना गलत नहीं होगा.
फिर इस तरह के बहुत-से मसलों को देखने-समझने के लिए नया ताना-बाना एक किताब से मिला. जेम्स सी. स्कॉट की लिखी आखिरी पुस्तक ‘अगेन्स्ट द ग्रेन’ २०१७ में प्रकाशित हुई. इसमें उन्होंने तरह-तरह के विषयों में अनेक विद्वानों के शोध को संजोया. राज्य नामक संस्था और उसके इतिहास का एकदम अलग दृष्टि से मूल्यांकन किया. इससे यह समझ आता है कि राज्य को हम सभी उन्हीं तरीकों से देखते-समझते हैं जो राज्य ने खुद बनाये हैं, या राज्य द्वारा प्रायोजित हैं. स्वराज्य के तरीकों से नहीं! जाहिर है, स्वराज्य की व्यवस्था और प्रणाली हमें समझ ही नहीं आती. हम उसे आदर्शवादी और अव्यावहारिक मान के नकार देते हैं. कबीर तो कह ही गये हैं: “साच कहूँ तो मारन धावे, झूठे जग पतियाना, देखो जग बौराना…” ओबेलिक्स भी कहता ही रहता है: “ये लोग पागल हैं!”
ऐस्ट्रिक्स के उस अनाम गाँव को हम सिर्फ रोमन साम्राज्य और उसकी साम्राज्यवादी नजर से देखते हैं. वहाँ रहने वाले गॉलवासियों की स्वतंत्रता हमें केवल लतीफों का मसौदा लगती है. हम मात्र यही मानते हैं कि रोमन साम्राज्य की असीम ताकत तो ऐतिहासिक सत्य है. जिसके सामने एक कॉमिक्स के काल्पनिक गाँव की क्या बिसात!
किंतु हम भूल जाते हैं कि रोमन साम्राज्य को खाक में मिले शताब्दियाँ बीत चुकी हैं. उसे समझना सिर्फ इतिहासकारों का काम बचा है, या वीडियो गेम्स बनाने वाले कंप्यूटर डिजाइनर लोगों का! लेकिन वह काल्पनिक गाँव हमेशा बना रहेगा. वह गाँव अनाम है, इसलिए कोई भी गाँव, कोई भी समाज, वहाँ अपना नाम लिख सकता है.
‘ऐस्ट्रिक्स इन ब्रिटेन’ कॉमिक्स की शृंखला का तीसरा अंक है. इसमें गॉल के हमारे नायक ब्रिटेन जाते हैं, वहाँ के उन लोगों की मदद करने जो रोमन साम्राज्य से लड़ रहे हैं. वहाँ जादुई काढ़े का पीपा नदी में गिर के बह जाता है. गॉलवासी नहीं चाहते कि ब्रिटिश स्वतंत्रता सेनानियों का दिल टूट जाये. उन्हें बहलाने के लिए ऐस्ट्रिक्स अपनी जेब से एक जड़ी की पत्तियाँ निकालता है और उसका काढ़ा बना के ब्रिटिश लड़ाकों को पिला देता है. बाद में पता चलता है कि यह चायपत्ती थी! इस नकली काढ़े से भी ऐसी ताकत आती है कि ब्रिटेन के लोग युद्ध जीत जाते हैं.
असल में वह जादुई काढ़ा ग्राम स्वराज ही है. इसकी जड़ी-बूटी, इसके मंत्र-तंत्र-यंत्र, हर सहज समाज के पास स्वाभाविक रूप में हैं. आपके पास भी!
I haven’t read such a beautifully written piece in a long time. My son and I read it together, and he was able to follow along and stay engaged thanks to the brilliant comparison you made between the world of Asterix and Obelix and the life of Indian Adivasis. That analogy brought the ideas to life in such a vivid and relatable way.
You’ve written a powerful and thoughtful narrative, seamlessly weaving together the perspectives of B.K. Roy Burman, James Scott, Soma Munda, and Gandhiji’s vision of self-sufficient villages. The concept of village self-rule has rarely been explained with such clarity and simplicity — we thoroughly enjoyed reading it.
Your comparison to Asterix and Obelix is especially striking. While the Roman Empire may have vanished long ago, the imagined world of that little rebellious village still stands as a powerful symbol of self-rule and living on one’s own terms. It’s an inspiring parallel for those who believe in autonomy, dignity, and community life.
Reading this piece has left me feeling truly excited and hopeful. Thank you for writing something so insightful and moving.
‘रोमन काल’ के गॉल के एस्टेरिक्स से लेकर 20-21वीं सदी के आदिवासियों तक की इस रोचक, पर गंभीर यात्रा कराने के लिए धन्यवाद!
यह सच है कि आज उद्योग का विकास ही राष्ट्र का विकास माना जाता है। और, जैसे कि आपने लिखा, राज्य को हम सभी उन्हीं तरीकों से देखते-समझते हैं जो राज्य ने खुद बनाए हैं, या राज्य द्वारा प्रायोजित हैं।
इसके मूल में शायद विज्ञान और तकनीक का प्रकृति से अलगाव है। गौर करें, औद्योगिक विकास प्रकृति से तत्वों को (शब्दश:) अलग करके किया जाता है। इसलिए जंगलों से मनुष्यों को, फिर खनिजों को जंगलों से निकालना सरकार के लिए ‘जरूरी’ है।
यानि मुख्यधारा का विज्ञान प्रकृति से अलग होकर उसे प्रयोग और नियंत्रण की चीज़ मानता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी में भाव और भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं। इस सोच से हमें टीवी, कंप्यूटर, ‘हिरोशिमा, और नागासाकी’ जैसे ‘उपहार’ मिले हैं।
जब विद्यार्थी था, तब सोचता था कि क्या समाज को सुखी करने के लिए न्यूटन के नियम, विद्युतचुंबकत्व और क्वांटम यांत्रिकी के अलावा कोई और विज्ञान हो सकता है? उन दिनों यह विचार बेमानी था।
अब कुछ विज्ञान प्रकृति से जोड़ कर किया जा रहा है। इनमें कोई नए मौलिक सिद्धांत तो नहीं बन रहे, पर जो हैं उन्हें मानवीय मूल्यों के साथ संयोजित किया जा रहा है। इस दृष्टिकोण का मूल विचार यह है कि प्रकृति और पर्यवेक्षक (देखने वाला) एक-दूसरे से अलग नहीं हैं।
विज्ञान और तकनीक के वैध लक्ष्य सिर्फ जीडीपी, भौतिक सुविधाएं, और अस्त्र-शस्त्र नहीं हो सकते। बल्कि सहजीवन, समावेशिता और जीवन का अर्थ—यही विज्ञान के मुख्य लक्ष्य होने चाहिए। इसमें दो राय नहीं हो सकती। यानि विज्ञान का सही लक्ष्य प्रकृति पर प्रभुत्व जमाना नहीं, बल्कि उसके साथ सह-विकास करना है।
यह जब होगा तब होगा। लेकिन मेरे मन में आज एक दुविधा यह है कि आदिवासी जीवन के रोमांस में (उदाहरणार्थ) आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को कैसे अनदेखा किया जा सकता है? कब तक वे अपने रोगों के लिए जड़ी-बूटियों पर निर्भर रहेंगे जिनका (प्लेसिबो या मनोवैज्ञानिक प्रभाव के अलावा) कोई तर्कसंगत आधार नहीं है? जानते हैं न, बुखार है तो झाड-फूंक नहीं क्रोसिन का जादू चलता है। या मैं गलत हूँ?
मुझे आदिवासियों के साथ रहने का अवसर तो नहीं मिला, लेकिन सुख के “स्रोत” को नज़दीक से देखने के लिए मैंने महीनों सबसे “सुखी” स्कैंडिनेवियाई देशों की यात्रा की, और अब जापान के शहरों-गावों की यात्रा पर हूँ। कुछ-कुछ समझ में भी आ रहा है। अभी इतना कहना पर्याप्त होगा, कि लगभग एक-तिहाई जापान जंगल है, और (लकडी के मकानों के बावजूद) यह अनुपात दशकों से स्थिर है।
फिलहाल खुशी इस बात की है कि (जैसे कि आपने कहा है) आदिवासी ईर्ष्या की हद तक जंगलों में हमसे ज्यादा सुखी हैं। फिर इस बात का दु:ख भी है, कि जंगलों को हटाकर हमारा ‘विकास’ उन पर थोपा जा रहा है।
इस विषय पर लिखने के लिए आपका, और हिंदी को स्थान देने के लिए “सुधारक” का धन्यवाद। आप इसे व्यापक बना रहे हैं।