ग्राम स्वराज्य पर यह विशेषांक मोहन हिराबाई हिरालाल और उनके काम को समर्पित है. इस अंक का स्वरूप जरा अलग है. हमारे मित्र सोपान जोशी से बातचीत के दौरान यह लगा कि इस विषय पर महाराष्ट्र के बाहर के अनुभव भी इसमें शामिल होने चाहिए. वही बात आगे बढ़ी और यह तय हुआ कि हिंदी के लेख भी होने चाहिए. इन प्रयत्नों की वजह से इस अंक को तैयार करने में अधिक समय लगा. अप्रैल में प्रकाशित होने वाला अंक अब आ रहा है.
मासिक संग्रह: जून, 2025
संपूर्ण अंक/ मराठी / हिंदी
जहाँ समाज का अपना राज है, समाज के लिए है, समाज से है
‘ग्राम स्वराज’ और उससे जुड़ी शब्दावली वहाँ नहीं मिलती. फिर भी पीढ़ियों से राज-समाज, आस्था-व्यवस्था के जिन तरीकों पर झारखंड के कई समाज चलते आ रहे हैं, उनमें इस विचार की बहुत पुरानी समझ है. समय ने करवट जरूर ली है. इसके मायने बदले. महत्त्व, मान्यताएँ, रीतियाँ, नीतियाँ, प्रणालियाँ बदलीं. गांधी ने कोशिश की कि समाज अपने मूल में रह कर ही विकास करे. सभी गाँवों की अपनी आस्था हो, अपनी व्यवस्था भी. यह कायम रह न सका. अब हम नारों में, सिद्धांतों में, कानून में ग्राम स्वराज को बताना चाहते हैं, लागू करना चाहते हैं.
ग्राम स्वराज का जादुई काढ़ा
“काल है ईसा से ५० साल पूर्व. समूचा गॉल देश रोमन साम्राज्य के कब्जे में आ चुका है. अरे!…समूचा नहीं! एक छोटे-से गाँव में रहने वाले अजेय गॉलवासी अभी भी आक्रान्ताओं का डट के मुकाबला कर रहे हैं. जो रोमन छावनियाँ उस गाँव को घेरे हुए हैं, उनके सैनिकों का जीवन आसान नहीं है…”
ये शब्द फ्रांस में बनी ‘ऐस्ट्रिक्स’ कॉमिक्स के हर अंक के पहले पन्ने पर होते हैं. नये पाठकों को इस काल्पनिक संसार का परिचय देते हैं. कुछ वैसे ही जैसे ‘विक्रम और वेताल’ की हर कड़ी की शुरुआत एक ही दाँव से होती है.
राज्य का प्रतिरोध, स्वराज का साधारण आधार
समय-समय पर कुछ ऐसे विद्वान होते हैं जो शास्त्रीय ज्ञान को साधारण लोगों के साथ जोड़ देते हैं. उनका काम यह सिद्ध करता है कि समाजशास्त्र जैसी कठिन विधा को अकादमिक दायरों से बाहर ला के समाज में रखा जा सकता है. जेम्स सी. स्कॉट ऐसे ही राजनीतिशास्त्री थे. आधी शताब्दी में फैले उनके अध्ययन के केंद्र में समाज और राज के संबंध ही रहे.
जब जुलाई २०२४ में उनका देहान्त हुआ, तब तक वे अपनी विधा को अभिजन और शासक वर्ग की सीमा से बाहर खींच लाये थे.
“ग्राम स्वराज आदिवासी परंपरा है. पेसा कानून इसकी आधुनिक कुंजी है.”
हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने वकालत की गहरी आलोचना की. उसे केवल “एक कमाई का रास्ता” बताते हुए कहा कि “वकील का स्वार्थ झगड़ा बढ़ाने में है”. यह भी कि “अगर वकील वकालत करना छोड़ दें…तो अंग्रेजी राज एक दिन में टूट जाए.” झारखंड के आदिवासी यह बात बहुत पहले से जानते आ रहे हैं. इसकी झलक मिलती है उन विशेषणों और गालियाँ में, जो वे वकीलों के लिए इस्तेमाल करते हैं. किंतु झारखंड के आदिवासियों को एक ऐसा वकील भी मिला जो इंसान है, जिसमें इंसानियत है.
पंचायती राज: ३० साल में कितना मजबूत हुआ लोकतंत्र?
पार्श्वभूमि
- तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के ३० से अधिक साल पूरे हो गए हैं। साल १९९२ में संविधान में संशोधन के साथ इस पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत हुई थी।
- ७३वें संशोधन की वजह से आदिवासी क्षेत्रों (अनुसूचित क्षेत्रों) में पंचायती राज के विस्तार और वन अधिकारों के लिए कानून बने।
- अपनी टिप्पणी में सी आर बिजॉय लिखते हैं कि लोकतंत्र को बिना मजबूत किये सत्ता के विकेन्द्रीकरण की ३० वर्षों से अधिक की यह कहानी आशा से निराशा की तरफ जाती है।
भारत में लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत करने के लिहाज से साल १९९२ को मील का पत्थर माना जाता है। तीन दशक पहले इसी साल संविधान में ७३वां (पंचायती राज के लिए) और ७४वां (नगरपालिका और शहरी स्थानीय निकायों के लिए) संशोधन किया गया था। आज़ादी के बाद राजनीतिक लोकतंत्र को आखरी पायदान तक ले जाने की दिशा में यह पहला ऐतिहासिक कदम था। इन संशोधनों का मकसद संविधान के अनुच्छेद ४० को हकीकत में बदलना था। संविधान का अनुच्छेद ४० नीति निदेशक सिद्धांतों में से एक सिद्धांत को समेटे हुए है और इसमें राज्य को ग्राम पंचायतों के गठन और पावर देने का सुझाव दिया गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य न केवल ग्राम पंचायत को संगठित करे बल्कि इतनी शक्ति और अधिकार दे कि वे स्वशासन की एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें।
लेकिन सामंती सोच वाले शासक वर्ग को ये भरोसा करने में चार दशक लग गए कि लोग खुद से खुद पर शासन कर सकते हैं। दरअसल, तब शासक वर्ग, कमांड और कंट्रोल लाइन पर बहुत ज्यादा निर्भर था। स्वतंत्रता के वक्त भारत को औपनिवेशिक प्रशासन के तरीके विरासत में मिले थे। इन तरीकों को ईजाद ही इसलिए किया गया था कि एक गुलाम देश और उसके लोगों पर आसानी से शासन किया जा सके।
आजादी के संघर्ष में यह खयाल भी शामिल था कि भविष्य में शासन करने के इन तरीकों का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा।
अतीत की बातें
प्राचीन काल से ही भारत में ‘लोकतांत्रिक’ संस्थाओं का लंबा इतिहास रहा है। साझा संप्रभुता के आधार पर जुड़े इस समाज में, शक्ति और अधिकार का बंटवारा कुछ ऐसा रहा है कि गांव, स्वशासी ग्राम गणराज्य के रूप में कार्य करते रहे हैं।
भारत के कार्यवाहक गवर्नर-जनरल (१८३५-३८) चार्ल्स टी.
आदिवासी स्वशासन
महात्मा गांधी ने ‘हिन्द स्वराज’ के द्वारा सत्ता के विकेंद्रीकरण को दृष्टि दी थी, क्योंकि उन्हें गाँव, लोग, उनकी सामुदायिक समझ और प्राकृतिक संसाधनों के तालमेल का अनुमान था. इस नजरिये को आगे बढ़ाते हुए जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री बनने के बाद आदिवासी समुदायों के कल्याण और विकास के समग्र दृष्टिकोण के तहत आदिवासी स्वशासन के पाँच सूत्र दिए. इन्हें ‘आदिवासी पंचशील’ के रूप में भी जाना गया. २ अक्टूबर, १९५४ को मुख्यमंत्रियों को उन्होंने एक पत्र लिखकर इन पाँच सूत्रों को अमल में लाने का सुझाव दिया:
पहला, आदिवासी समुदायों की संस्कृति व पहचान का सम्मान किया जाए.