हिंद स्वराज में महात्मा गांधी ने वकालत की गहरी आलोचना की. उसे केवल “एक कमाई का रास्ता” बताते हुए कहा कि “वकील का स्वार्थ झगड़ा बढ़ाने में है”. यह भी कि “अगर वकील वकालत करना छोड़ दें…तो अंग्रेजी राज एक दिन में टूट जाए.” झारखंड के आदिवासी यह बात बहुत पहले से जानते आ रहे हैं. इसकी झलक मिलती है उन विशेषणों और गालियाँ में, जो वे वकीलों के लिए इस्तेमाल करते हैं. किंतु झारखंड के आदिवासियों को एक ऐसा वकील भी मिला जो इंसान है, जिसमें इंसानियत है. उसे उन्होंने ‘वकील होड़ो’ कहा, यानी ‘वकील मनुष्य’! वह दस-दस महीने उनके गाँवों में उनके साथ रहता था. उनके ढोल बजाता, उनके साथ नाचता. उनसे आनंद और प्यार पाता था. उस वकील ने उनकी भाषा सीखी, उनका इतिहास खोजा, और सरकारों और अदालतों के आगे उनका पक्ष रखा. उनकी हक की लड़ाई को कानूनी धार दी. इससे आदिवासी स्वातंत्र्य के इतिहास को नयी रोशनी मिली. इस रोशनी में जगमगाता हुआ दिखता है ग्राम स्वराज का सहज सत्य. इस वकील होड़ो का नाम है रश्मि कात्यायन. प्रस्तुत हैं सोपान जोशी के साथ उनकी बातचीत के संपादित अंश.
अपने परिवार और बचपन के बारे में बताइए.
मेरा जन्म १ जनवरी १९५२ को हुआ और नाम रखा गया रश्मि कुमार झा. उन्हीं दिनों दिनकरजी की कविता आयी थी, ‘रश्मिरथी’, जिसका हमारे पिताजी पर खूब प्रभाव था. उन्हीं ने मेरा नाम रखा. वे इंजीनियर थे और १९४२ में अंग्रेजों के खिलाफ ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में लग गए थे. मेरी माँ ने बताया कि उनकी मुझ से बहुत-सी अपेक्षाएँ थी, जिन्हें वे लिख के छोड़ गये हैं. माँ कहती थीं कि अनजाने में ही उनका असर मुझ पर रहा. लेकिन मेरे जन्म के साल-दो-साल में पिताजी अमेरिका चले गये थे. वे गणित में पारंगत थे और दामोदर वैली कॉरपोरेशन के लिए काम करते थे, जिसकी साझेदारी थी अमेरिका की टेनेसी वैली अथॉरिटी के साथ. उसी में उन्हें अमेरिका जाना पड़ा. आज हमारे परिवार के ९५ फीसदी लोग अमेरिका में ही हैं.
मेरे दादाजी ज्यूडिशियल कमिश्नर थे रांची में, जो उस वक्त दक्षिण बिहार में था. जब पढ़ाई का समय आया, तब मुझे हजारीबाग के सेंट जेवियर्स् बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया. रिश्तेदारी में इसका बड़ा विरोध हुआ, कि जात बिगड़ जाएगी, परवरिश बिगड़ जाएगी, लड़का ईसाई हो जाएगा. लेकिन दादाजी के प्रभाव में सब शांत रहे होंगे.
आपका स्कूल कैसा था?
वह जेसुइट कैथलिक संप्रदाय का स्कूल था. वहाँ पढ़ाने वाले ऑस्ट्रेलियन पादरी बहुत उदार लोग थे. हमें तरह-तरह के विषय खुलेपन से पढ़ाये जाते थे. एक विषय ‘एथिक्स’ था जिसकी कक्षा में सभी धर्मों के बारे में पढ़ाया जाता था. यह बड़ी गलतफहमी है कि ऐसे विद्यालयों में बच्चों को ईसाई बनाने का काम होता है. हमारे स्कूल में तो ईसाई लोग भी ईसाई जैसे नहीं लगते थे. कभी किसी ने मुझसे नहीं कहा कि मैं ईसाई हो जाऊँ. कभी नहीं, एकदम कभी नहीं.
एक उदाहरण लीजिए. मैं गाने-बजाने और नाटक-रंगमंच में सक्रिय था. मेरे ईसाई दोस्त चर्च के ‘क्वायर’ में गाते थे. मेरा भी मन हुआ, पर मुझे शामिल नहीं किया गया. पादरी लोग चिंतित थे कि मेरे माता-पिता नाराज हो जाएँगे. जब मैंने जिद की, तो उन्होंने कहा कि एक बार अपने माता-पिता से अनुमति ले लो. मैं साफ मुकर गया, कि किसी से नहीं पूछूँगा. उन्हें मानना पड़ा. मैं चर्च में गाने लगा. मैंने ड्रम बजाना सीख लिया था, सो वह भी बजाता था.
छठी से दसवीं तक हफ्ते में एक बार अनूठी कक्षा लगती थी, जिसे प्रिंसिपल साहब ही लेते थे. इस क्लास का नाम था ‘थिंक’, यानी सोचना. इसमें कोई भी किसी भी तरह का सवाल पूछ सकता था, अनाम चिट्ठी लिख के. किसी तरह की व्यक्तिगत जानकारी सवाल में नहीं डाल सकते थे. हर सवाल का जवाब प्रधानाचार्य खुद देते थे. सवाल पूछने का आग्रह किया जाता था. ऐसा स्कूल था और ऐसे शिक्षक थे.
क्या वह विद्यालय याद आता है?
हर रोज याद करता हूँ और बड़े लगाव के साथ! उनका अनुशासन सिखाने का तरीका भी अजब था! मान लीजिए कि गलती से आपसे खिड़की का शीशा टूट गया. यदि आप खुद जा के बता दें, तो कोई सजा नहीं मिलती थी. लेकिन अगर आपने नहीं बताया, तो उसका बिल आपके पिता को भेज दिया जाता था. यानी आपको झूठ बोलने की डाँट आपके अपने पिता से पड़ती थी.
आपका नाम कैसे बदल गया?
जब कॉलेज में दाखिला हुआ, तब लोग मुझे ‘झाजी’ कह के बुलाने लगे. मुझे अटपटा लगता था क्योंकि स्कूल के वातावरण में तो सभी एक जैसे रहते थे. जब मैंने कारण पूछा, तो पता चला कि मैं किसी ऊँचे ब्राह्मण कुल से हूँ. मुझे इसमें जातिगत भेदभाव दिखा. जब अपने गोत्र का पता किया, तो वह कात्यायन निकला. गोत्र तो सभी का होता है, जाति कुछ भी हो! और खोजने से पता चला कि कात्यायन ऋषि अपनी जाति छोड़ के शिक्षा में आ गये थे. मुझे लगा मैं तो उस गोत्र से हूँ जिसमें जात-पाँत पर झगड़ा बहुत पहले ही हो चुका है. मैंने तय कर लिया कि जाति का नाम हटा के गोत्र का नाम डाल दूँगा.
लेकिन उस समय वयस्क होने की उम्र १८ नहीं, २१ थी. इसे ले के घर में झगड़ा चलने लगा. मैंने इंतजार किया और जैसे ही २१ साल का हुआ, पंद्रह दिन के भीतर अपना नाम बदल लिया. क्योंकि मैं अखबारों में लिखता था, इसलिए आसानी से अखबारों में छपवा भी दिया. फिर विश्वविद्यालय जा के अपनी डिग्री पर लिखा नाम भी बदलवा लिया.
इसकी वजह से पिताजी रूठ गये. उन्होंने मुझ से पाँच-छह साल बात नहीं की. लेकिन बाद में एक दोस्त की मदद से कात्यायन लोगों के ऊपर किसी जर्मन विद्वान का शोध निकाल के उन्हें बताया. उसे देख के वे बड़े खुश हुए. इस तरह मैं जातिसूचक नाम से मुक्त हुआ.
क्या उस समय इसकी लहर चल रही थी?
यह बिहार आंदोलन के दो साल पहले ही हो गया था. मुझे ध्यान है कि आंदोलन के समय इसे ले के विवाद हुआ था. पटना में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी में जाति-सूचक नाम हटाने की बात हुई. यह बात हो रही थी कि लालू प्रसाद अपने नाम से यादव हटा देंगे और सुबोधकांत सहाय हटा देंगे. तब मैंने कहा कि जाति की जगह गोत्र पर नाम रखें. सभी जाति में गोत्र एक-से ही होते हैं. लेकिन मेरा प्रस्ताव फेल हो गया. लालूजी फिर यादव हो गये और बाकी लोग भी अपना-अपना सरनेम वापस लगाने लगे.
मेरी पत्नी का नाम सुनीता कात्यायन है. हमारी शादी अंतर्जातीय है. परिवार में खूब झगड़ा हुआ, मुझे कहा गया कि तुम जाति तोड़ते ही रहते हो. लेकिन अब मेरी पत्नी परिवार में सभी की प्रिय है क्योंकि वह बच्चों की डॉक्टर है. जब कहीं परिवार में बच्चा होने को आता है, सभी को भाभीजी तुरंत याद आती हैं. सुनीता ने सरकारी नौकरी कभी नहीं की, जिससे बिहार में बहुत फायदा होता है. अब तो मैं भी अपने परिवार का सबसे प्रिय वकील हूँ, क्योंकि संपत्ति के मामलों में सलाह के लिए सभी मेरे पास आते हैं.
वकालत में रुचि कैसे बनी?
दादाजी जज थे इसलिए ऐसा लगता था कि कानून के सहारे कमजोर लोगों की सेवा हो सकती है. लेकिन प्रैक्टिस शुरू हुई जे.पी. आंदोलन और इमरजंसी की भूमिका में. इधर-उधर कुछ लोग बोलने लगे कि अगर जेल की यात्रा करोगे, तो तुम्हारा कॅरियर ठीक हो जाएगा. वो कहने लगे कि तुम घर पर ही रहना, सुबह चार बजे पुलिस वाले आ के ले जाएँगे. तुम्हारा रिकॉर्ड बन जाएगा, फर्स्ट क्लास.
मुझे यह जमा नहीं और मैं चुपचाप भाग गया, मुंबई की ट्रेन में चढ़ गया. वहाँ पहुँचने के पहले लगा कि यहाँ किसी को पता न चल जाए, इसलिए मैं कल्याण में ही उतर के पुणे पहुँच गया. वहाँ मेरा दोस्त प्रकाश झा था, जो आजकल बड़ा फिल्मवाला हो गया है. उस समय प्रकाश फिल्म की पढ़ाई कर रहा था. मैं उसी के हॉस्टल में जा के छिप गया. वहीं पर रहते हुए, कैंटीन में खाते-पीते फिल्मों में रुचि बन गयी. बाद में यहाँ आ के एक एथनोग्राफिक डॉक्यूमेंट्री भी बनायी.
इमरजेंसी का समय आपने कैसे काटा?
मुंबई-पुणे में रहा, गिरफ्तार नहीं हुआ. वहाँ कोई समझ नहीं पाता था कि मैं हूँ कौन. उनके लिए मैं बिहारी था, पर अंग्रेजी भी बोल लेता था. मेरी पहचान को ले के अनजान लोगों को जो गफलत होती थी, उससे मुझे बहुत मजा आता था. उस समय कई तरह के काम किये. एक्सपोर्ट-इंपोर्ट डिपार्टमेंट से ‘रॉ-स्टॉक’ कलर फिल्म खरीद के ले आता था. वहाँ के लोग दक्षिण भारत से थे और सोचते थे कि मैं भी दक्षिण से हूँ, क्योंकि मेरा नाम वहीं का लगता था. इस कात्यायन नाम से मुझे बहुत फायदे हुए, मुझे कोई भी किसी खाँचे में नहीं डाल पाता था.
वकालत में कैसे लौटना हुआ?
यदि आंदोलन में नहीं आता, तो १९७८ के आस-पास वकालत शुरू कर लेता. लेकिन मैंने १९८१ में प्रैक्टिस शुरू की. कॉलेज से पढ़ के वकालत करने बहुत-से लोग आते हैं, पर उन्हें पता ही नहीं रहता कि क्या करना है. घूम-घाम के मैं इतना तप गया था कि मुझे पता था क्या करना है, क्या कहना है.
भीतर कहीं जज बनने की इच्छा कम उम्र से थी, दादाजी की तरह. लेकिन युवावस्था में ही समझ आ गया था कि ऊँची अदालतों में वकालत करना मेरे बस का नहीं था. वहाँ बहुत परिवारवाद रहता है और इस चाचा-भतीजे के खेल में मेरा अपना कोई नहीं था. फिर ऊँची अदालतों में सहम के रहना होता है, हर किसी का लिहाज करना पड़ता है, बड़ा कायदा चलता है. तो तीन साल हाई कोर्ट आजमाने के बाद मैं उसे छोड़ के निचली अदालत में आ गया. वहाँ जो मन आये वह कह सकते हैं. बाकी लोग लोअर कोर्ट से ऊपर जाने का रास्ता देखते हैं, मैं ऊपर से नीचे चला आया था.
आप आदिवासियों की ओर कैसे खिंच आये?
यह तो साफ पता था कि मुझे कमजोर और वंचित लोगों के लिए काम करना था. ऐसे लोग जिनके भोलेपन का लाभ उठा के उन्हें कोई ठग लेता है. इस भावना के पीछे कुछ परिवार का असर भी था. हमारे घर के पीछे हमारे यहाँ काम करने वालों के घर भी बनाये गये थे, वे अछूत बस्ती में नहीं रहते थे. ऐसा दूसरे घरों में नहीं होता था. मेरी इच्छा थी छुआछूत तोड़ने की, सभी तरह के लोगों के साथ हिल-मिल के रहने की.
फिर आपको भेदभाव की समझ कैसे आयी?
बचपन में तो कभी छुआछूत देखी ही नहीं थी. कॉलेज आने के बाद इसकी समझ आयी. मुझे मैराथन जैसी लंबी दौड़ का अभ्यास था, ऊर्जा खूब थी और खेल-कूद में रुचि भी. अमीर लोग सब क्रिकेट खेलते थे, सफेद-झक लिबास पहन के खड़े रहते थे, सब-कुछ धीमे-धीमे होता था. मुझे क्रिकेट नीरस और ऊबाऊ लगता था. मैं हॉकी खेलता था जिसमें एक घंटे में ही दौड़ने-भागने का रोमांच था. बाकी सभी हॉकी खिलाड़ी आदिवासी थे और हम लोग साथ में दौड़ते थे. (हॉकी का आदिवासी समाज में बड़ा प्रचलन रहा है और जयपाल सिंह मुंडा भारतीय हॉकी टीम के पहले हिंदुस्तानी कैप्टन थे.)
हॉकी खेलने वाले आदिवासी सहपाठियों का हॉस्टल अलग था. जब मैं उनसे मिलने जाता, तो वे लोग टोकते थे कि उनसे मिलने वहाँ न आया करूँ क्योंकि मेरे आने से तनाव हो जाएगा. तब मुझे इस तरह के भेदभाव का पता चला और बड़ा अचरज हुआ. मैंने पूछा: यह क्या बात हुई, मैं भी काला हूँ और तुम भी काले हो, इसमें क्या फर्क पड़ता है? जब वे नहीं माने, तब मैंने कहा कि मैं उनके हॉस्टल के बाहर दरवाजे पर ही बैठूँगा, फिर साथ में कैंटीन जा के साथ में खाना खाएँगे. तो इस तरह के झगड़े मेरे कॉलेज में ही शुरू हो गये थे.
साथ में खेलने का असर क्या हुआ?
साथ में हॉकी खेलने की वजह से आदिवासी साथियों के साथ दोस्ती हो गयी, उनके घर आना-जाना और साथ खाना-पीना शुरू हो गया, परिवार जैसे रिश्ते बन गये. मैं अपने आदिवासी दोस्तों के गाँव भी जाता था और धीरे-धीरे उनकी मुंडारी भाषा भी सीख गया था, जिसकी वजह से उन्होंने मुझे अपना लिया था. आप जिसकी भाषा सीख लें उसका दिल आपके लिए पसीज ही जाता है. साथ में रहन-सहन हो, तो भाषा सीखना मुश्किल नहीं होता है. मैं बंगाली और भोजपुरी भी ऐसे ही जान गया. अगर मुंबई में और रहता, तो शायद थोड़ी-बहुत मराठी भी आ जाती.
शुरु में किस तरह के केस मिले?
पहले जूनियर वकील का काम मिलता है. क्योंकि मेरी अंग्रेजी ठीक थी इसलिए मुझे डिक्टेशन लेने का काम मिलने लगा. एक बार एक क्रिमिनल केस आया जो सीनियर ने मुझे दे दिया. मामूली सा मामला था: सात-आठ आदिवासियों पर लकड़ी चुराने का आरोप था. वन विभाग उन पर अभियोग चला रहा था. मुलजिमों ने मुझे बताया कि अपना मकान बनाने के लिए अपनी जमीन से लकड़ी निकालना अपराध नहीं होता! सुन के अजीब लगा. पूरे हिंदुस्तान के जंगल तो सरकार के ही हैं. फिर इनका अपना जंगल कहाँ से आ गया?
जब जमीन के कानून पर शोध किया तब अंग्रेजों के समय के अधिकार अभिलेख (‘रिकॉर्ड ऑफ राइट्स’) देखने पड़े, जिसे हमारे यहाँ खतियान कहते हैं. सामुदायिक अधिकार का ब्यौरा ‘खतियान पार्ट टू’ में मिला. इन्हें बनाने का मामला समझना पड़ा। पहले ‘गैरमजरूआ’ जमीन को खेती लायक बनाने का सर्वे हुआ, जिसमें उस भूमि पर ग्रामवासियों के अधिकार का ब्यौरा लिखा रहता है. (उत्तर प्रदेश में इन्हें खाता-खतौनी कहा जाता है और महाराष्ट्र में सात-बारह.) फिर रिकॉर्ड रूम से अभिलेख निकलवाये, तो पता चला कि जमीन का वह हिस्सा खतियान पार्ट टू में था और उन लोगों को लकड़ी ले जाने का अधिकार पहले से मिला हुआ था. अदालत में यही जिरह मैंने की और केस जीत गया.
इस जीत का प्रभाव कैसा था?
कई सीनियर वकील इससे परेशान हो गये. वकीलों के बार एसोसिएशन वाले मेरे पीछे पड़ गये, कि मैं खतियान पार्ट टू की बात कर के दूसरे वकीलों की प्रैक्टिस खराब करूँगा. मैंने कहा कि यह गलतफहमी है, कि हर मामले में कम-से-कम दो पार्टी तो होती ही हैं. फिर भी, वकीलों को लगता था कि इस सब को छिपा के रखने में ही उनका स्वार्थ है. बाद में पता चला कि इसके पीछे चिंता यह थी कि अगर आदिवासी ज्ञानी हो जाएँगे, तो उन्हें ठगना मुश्किल हो जाएगा. मैंने कहा कि अगर आदिवासी जमीन लूटने में आपका मुनाफा है, तो मुझे आपको नुकसान पहुँचाने में कोई हिचक नहीं रहेगी. जब १९८३ में मैंने सीनियर वकीलों का साथ छोड़ा, तब लोअर कोर्ट में कुछ जमीन के मामले मिले.
मैंने पाया कि छोटानागपुर इलाके के खतियान पार्ट टू में सभी अधिकार गाँव के नाम से लिखे हुए हैं, किसी भी जमींदार के नाम पर नहीं. सभी अधिकार गाँव में रहने वालों को सामूहिक रूप से मिले हुए थे, जैसे फल-फूल लेना, कंद-मूल और सूखी लकड़ी निकालना, जलावन की लकड़ी काटने का अधिकार, गाय-बकरी चराने का अधिकार…एकदम बारीकी से हर अधिकार का ब्यौरा है. और यह सब गाँव के नाम है, वहाँ रहने वाले समुदाय के नाम से है. कहाँ पर पथरीली जमीन को खेत में बदल सकते हैं, घर बनाने के लिए मोटी लकड़ी कहाँ से काट सकते हैं…यह सब गाँव के नाम लिखे हैं. ऐसा कहीं और नहीं मिलता है.
मैंने इस पर किताब लिखनी शुरू की. ‘झारखंड लैंड मैनुअल’ को पूरा करने में मुझे २८ साल लग गये. लेकिन आदिवासियों पर लागू सभी कानून मैंने हिंदी में समझाये. आज वह बड़ी लोकप्रिय किताब है, सभी तरह के लोग उसे पढ़ते हैं.
ऐसा झारखंड में ही क्यों हुआ?
क्योंकि १७५७ में प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी को १७६५ में बंगाल की दीवानी ही सबसे पहले मिली थी. वहाँ से उन्हें पश्चिम की ओर जाना था. चाहे उत्तर भारत जाना हो या पश्चिम, सारे रास्ते यहीं से हो के गुजरते थे. जब उन्होंने १७८४ में यहाँ घुसने की कोशिश की, तो सबसे पहले तिलका माँझी के ‘हुलगुलान’ ने उनको रोक दिया. यह समझने में जरा कठिन है, क्योंकि हमें इतिहास में यही पढ़ाया जाता है कि आजादी की लड़ाई १८५७ में शुरू हुई. क्योंकि हमें आदिवासियों का इतिहास पढ़ाया ही नहीं जाता. आप सोच के देखिए, जैसे ही अंग्रेजों के यहाँ पाँव धरे, आदिवासी उनसे लड़ लिये, १७८४ में! उसके बाद हर दस-पंद्रह साल में आदिवासियों का कोई बड़ा विद्रोह हुआ अंग्रेजों के खिलाफ. छोटे-छोटे विद्रोह तो आये दिन होते ही रहते थे.
लेकिन बंदूक और तोपों के आगे तीर-कमान कब तक चल पाते! फिर भी आदिवासियों ने अपनी जमीन और अपनी व्यवस्था बचा के रखी. अंग्रेजों की शह पर जब यहाँ जमींदार घुसे, तब आदिवासियों से उन्होंने महसूल यानी कर माँगा. आदिवासियों ने साफ कर दिया कि उन्होंने न तो कभी किसी को महसूल दिया है, और न आगे ही देंगे. तिलका माँझी की पहली लड़ाई यही थी, कि ये कौन बंगाली आ गये हैं हमसे महसूल माँगने. अरे, मैं तो यहाँ का माँझी हूँ, यानी मुखिया हूँ! अगर लगान वसूलने का अधिकार मुझे नहीं है, तो किसी और को कैसे मिल जाएगा! जमीन तो सामुदायिक होती है, यह तो नैसर्गिक चीज है, परमेश्वर की देन है. इस पर राजस्व मैं किसी को भी क्यों दूँ?
क्या यहाँ के आदिवासियों ने किसी राज्य को राजस्व नहीं दिया है?
नहीं, एकदम नहीं. ईस्ट इंडिया कंपनी वालों को भी धीरे-धीरे यह बात समझ में आ गयी. उन्होंने बाकी जगह जमींदारी लागू की, खूब लगान वसूल किया. लेकिन छोटानागपुर के पठार पर वे वसूली नहीं कर सके. आदिवासियों ने, खासकर यहाँ के मुंडा लोगों ने उनकी नाक में दम कर दिया था. इससे हम आदिवासी साहस का अंदाजा लगा सकते हैं, उनकी स्वतंत्रता और स्वाभिमान का भी. वे अपनी व्यवस्था में ही रहे हैं. किसी दूसरी व्यवस्था के आगे घुटने टेकने कि बजाय वे मरने के लिए तैयार रहे हैं. न तो ईस्ट इंडिया कंपनी के आगे हार मानी, न १८५७ के बाद अंग्रेज सरकार के शासन के आगे.
जब अंग्रेजों ने १७८०-९० में नयी तरह की जमींदारी का स्थायी बंदोबस्त किया, तब यहाँ के विद्रोहों की वजह से उसे यहाँ लागू नहीं कर सके. आदिवासियों ने उनसे लड़ के अपने कानून अलग बनवाये, जो उनकी अपनी व्यवस्था पर आधारित थे. तभी तो ‘भुईंहरी’ और ‘मुंडारी खुंटकट्टी’ जैसी श्रेणियों को कानूनी दर्जा देना पड़ा, जिसमें यह स्वीकार किया जाता है कि इस जमीन को सबसे पहले जोतने वाले उराँव, मुंडा आदिवासी ही हैं. और यह भी कि इसका कोई लगान या महसूल नहीं दिया जाएगा. जब-जब यह कानून कमजोर हुआ, तब फिर विद्रोह हुआ.
इसी कड़ी में बिरसा मुंडा का विद्रोह हुआ १९०० में. उन्हें जेल में रख के मार दिया. लेकिन उस विद्रोह का असर ऐसा हुआ कि अंग्रेज सरकार को १९०८ में छोटानागपुर टेनेन्सी ऐक्ट पास करना पड़ा, जिसमें मुंडारी खुंटकट्टीदारों को लगान न देने की बात तो थी ही, यह भी लिखा था कि कोई बाहर का व्यक्ति बिना गाँववालों की अनुमति के वहाँ घुस तक नहीं सकता है. यह केवल मुंडारी खुंटकट्टी की बात नहीं है. दूसरी ओर भूईंहरी श्रेणी भी ऐसे ही बनी. यह सब आज तक चला आ रहा है. हमें अपने इतिहास की सच्चाई जानने की कोशिश करनी चाहिए.
क्या सिंहभूम के जंगलों में भी ऐसा ही हुआ था?
हाँ, वहाँ के कोल्हान के इलाके में १८३३-१८३५ में विल्किन्सन रूल्स बने. पर ये नियम कोल्हान के इलाके में ही लागू हुए, सारे सिंहभूम में नहीं. यह पश्चिमी सिंहभूम में करीब ७०० पहाड़ियों से घिरा हुआ एक क्षेत्र है. वहाँ आज भी साल के घने जंगल हैं, जिनमें हाथियों का वर्चस्व है. वहाँ लोहे के खनिज भरे पड़े हैं, इसलिए उस जंगल पर खनन वालों की नजर लगी हुई है.
आदिवासियों ने उस जंगल को ऐसी आँख से कभी नहीं देखा. हाथियों को वहाँ के ‘हो’ आदिवासी ‘मरांग होड़’ कहते हैं, जिसका मतलब होता है बड़ा आदमी. आप आदिवासियों से पूछेंगे कि तुम कौन हो, तो वे अपने आप को ‘हो’ या ‘होड़’ या ‘होड़ो’ कहते हैं, यानी मनुष्य. यह जो आजकल ‘जल-जंगल-जमीन’ की बात होती है जिसमें लोग ‘जन और जानवर’ भी जोड़ देते हैं, आदिवासी दृष्टि में ये सब कभी अलग रहे ही नहीं हैं.
ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले राज्यों के आदिवासियों से संबंध कैसे थे?
झारखंड के आदिवासी इलाकों के आस-पास बड़े राज्य नहीं थे. हाँ, रजवाड़े थे, जैसे छत्तीसगढ़ में था. तो ये एक-दूसरे से अलग रहते थे. ज्यादातर रजवाड़े मैदानी इलाकों में थे. आदिवासी रहते थे पहाड़ों और पठारों पर, जहाँ वे रजवाड़ों को घुसने नहीं देते थे. उदाहरण के लिए खुंटकट्टी क्षेत्र या कोल्हान में कभी भी किसी की जमींदारी नहीं रही है, किसी भी राज्य के राजा का राज वहाँ नहीं चलता था. किसी राजा को यहाँ ‘गन सैल्यूट’ नहीं मिला. वैसे भी, इनमें लगभग सभी नकली राजा थे. मूल रूप में ये लोग महसूल वसूल करने वाले जमींदार ही थे.
इसका मतलब यह नहीं कि इन नकली राजाओं और रजवाड़ों ने आदिवासी जमीन पर कब्जा करने की कोशिश नहीं की. मेरी एक किताब है जिसमें १५८५ में अकबर के राज से ले कर १९५० में संविधान लागू होने तक इस आदिवासी क्षेत्र के भू-संबंधी आंदोलनों और उनसे निकले कानूनों की बातें संकलित हैं. हर तरह के राजाओं ने आदिवासियों की जमीन पर अपना वर्चस्व जमाने की कोशिश की, चाहे वे अपने आप को सूर्यवंशी कहते हों, चंद्रवंशी या नागवंशी. ये सब घुड़सवार होते थे, और वैसे ही आते थे जैसे अभी के रंगदार लोग आते हैं. इनके बहुत सारे अफसर होते थे, जैसे इनामदार, लंबरदार, जमींदार… ये ‘दार’ के औहदे वालों ने अब तक हमारा पीछा करना नहीं छोड़ा है. थानेदार भी इसी तरीके से आता है, जो आज भी बचा हुआ है.
क्या ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद इन रजवाड़ों का आदिवासियों के साथ व्यवहार बदला?
अंग्रेजों के साथ साठगाँठ करने से रजवाड़े सुरक्षित हो गये थे. जब १७८४ में तिलका माँझी ने विद्रोह किया, तब राजमहल की पहाड़ी की ओर से भीतर घुसने की कोशिश हो रही थी. लेकिन आदिवासियों ने न तो साठगाँठ की और न अपनी व्यवस्था छोड़ी. उन्हें अंग्रेजों से कुछ भी नहीं चाहिए था. तभी तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने १७८८ में इसे ‘नॉन-रेगुलेशन प्रोविंस’ बनाया, यानी जहाँ उनका कानून लागू ही नहीं होता था. फिर जब १८३३ में कोल विद्रोह हुआ, तब वहाँ जो ‘साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ बनाई, वह भी ‘नॉन रेगुलेशन प्रोविंस’ ही था. फिर १८५७ के बाद जब रानी विक्टोरिया का राज स्थापित हो गया, तब १८७४ में ‘शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट’ बनाना पड़ा.
फिर १९२० में इसे ‘बैकवर्ड ट्रैक्ट’ कहा गया. जब १९३५ में ‘गवर्न्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट’ आया, तब उसमें आदिवासी इलाकों को ‘ऐक्सक्लूडेड एरिया’ (वर्जित इलाका) या ‘पार्शियली ऐक्सक्लूडेड एरिया’ (आंशिक रूप से वर्जित इलाका) घोषित किया. (भारत के संविधान में आज भी ये दोनों इलाके पाँचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची में आते हैं.) यानी अंग्रेजों या उनके आधीन रहने वाले रजवाड़ों के कानून यहाँ लागू नहीं हो सकते थे. इससे बड़ा और क्या प्रमाण चाहिए कि इस आदिवासी इलाके ने अपनी स्वतंत्रता कभी नहीं छोड़ी, न अपनी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था ही. हर तरह के प्रमाणों की कसौटी पर कस कर देख लीजिए, स्वराज और स्वतंत्रता का ऐसा भाव आपको किसी और जगह मिलेगा क्या?
जिस अंग्रेज शासन ने बड़े-बड़े साम्राज्यों को हरा दिया, वह आदिवासियों के सामने कैसे पीछे हट गया?
आसानी से नहीं हटा. यहाँ उसे बार-बार मुँह की खानी पड़ी. आदिवासी समाजों ने इस स्वतंत्रता की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है. युद्ध किये, विद्रोह किये, ऐसे बलिदान दिये जिन्हें हमें अपनी इतिहास की किताबों में पढ़ाना चाहिए. भयानक हिंसा झेली. जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने मान लिया कि इन लोगों के साथ वह हथकंडे काम नहीं आएँगे जो बाकी हिंदुस्तान में चल गये, तब उन्होंने अपना रवैय्या बदला. क्योंकि उन्हें कुछ ऐसा बेशकीमती संसाधन चाहिए था जो आदिवासियों के साथ शांति हासिल किये बिना नहीं मिल सकता था.
हमारे यहाँ साल के घने जंगल हैं, मोटे-मोटे पेड़ हैं. साल की लकड़ी पानी के जहाज बनाने के लिए बहुत अच्छी थी, खासकर समुद्री जहाजों के लिए, क्योंकि वह खारे पानी से बिगड़ती नहीं है. यहाँ जंगल में ऐसे वनस्पति हैं जिनसे बनी रस्सी पानी में बहुत मजबूत रहती है. फिर जब रेलगाड़ी भारत आयी, तब पटरी के नीचे बिछाने वाले स्लीपर भी साल से बेहतर किसी दूसरी लकड़ी के नहीं बनते थे. फिर कोयला भी यहीं मिलता है, जिसका उत्पादन यहीं की रानीगंज कोल फील्ड से शुरू हुआ.
अंग्रेजों ने उन्हें नेस्तनाबूद क्यों नहीं कर दिया?
अगर इन्हें खत्म कर देते, तो उन्हें व्यापार में मुनाफा कैसे होता? इन जंगलों के बारे में जितना यहाँ के आदिवासी जानते थे उतना तो कोई नहीं जानता था. अंग्रेजों को मुफ्त में ‘कंसलटेंट’ भी तो चाहिए थे! यह जानकारी उनके पालतू जमींदारों के पास नहीं थी. और आदिवासियों को उनके पैसे-लत्ते की जरूरत ही नहीं थी! यहाँ की अर्थव्यवस्था धन-दौलत से नहीं, रिश्तेदारी और आदान-प्रदान से चलती थी. अपनी इसी व्यवस्था को बचा के रखने की लड़ाई तो वे लड़ते रहे.
अंग्रेजों को उन्होंने इन जंगलों के कुछ संसाधन लेने दिये. बदले में अपनी स्वायत्तता माँगी. अंग्रेज जान गये थे कि यहाँ के आदिवासी न तो झुकने वाले थे और न भागने वाले ही. तभी उन्होंने आदिवासियों के साथ समझौते किये. व्यापार के लिए इस तरह के समझौते तो सभी जगह होते रहते हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प को तो व्यापार के लिए चीन के साथ समझौते करने ही पड़ेंगे. हाँ, आदिवासी इन्हें संसाधन की तरह नहीं देखते थे. उनके लिए जमीन और जंगल परिवार का हिस्सा होते हैं. उन्होंने अंग्रेजों को कुछ संसाधन निकालने दिये, और बदले में अपनी जमीन रखी, अपनी व्यवस्था रखी, अपना स्वराज रखा.
आज भी बाहर से आ के बसे लोग आदिवासियों की जमीन खसोटने के तरीके ढूँढ़ते ही रहते हैं. वैसे ही जैसे पहले के रजवाड़ों ने यहाँ अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश की. जैसे अंग्रेजों ने यहाँ अपने विकास का बुलडोजर चलाने का प्रयास किया. ऐसी कोशिशों की याद आदिवासी समाज में गयी नहीं है. इसी का असर है कि आदिवासी किसी भी बाहर वाले को अपने गाँव में घुसने ही नहीं देते थे, जब तक वह विश्वसनीय न हो. जो आदिवासी गाँव सड़कों और शहरी बस्तियों से दूर हैं, वहाँ आज भी बाहरी व्यक्ति बिना अनुमति के भीतर नहीं घुस सकता. आपको वहाँ के लोगों को ‘जोहार’ बोलना पड़ेगा, यह जताना पड़ेगा कि आप सद्भाव में आ रहे हैं. अगर इसके बिना आप भीतर गये, तो कोई न कोई आप को घेर लेगा, कहेगा कि आप तो बड़े निर्लज्ज व्यक्ति हैं, किसी के घर में घुस रहे हैं और उसे देख के प्रणाम भी नहीं किया!
आप भी तो बाहर वाले थे. आदिवासियों ने आप पर भरोसा क्यों किया?
कोईल-कारो में बांध न बनने से २४० गाँव डूबने से बच गये थे. इस पर अदालतों के फैसले १९८५ से १९९२ के बीच आये. सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि सरकार पहले दो गाँवों को पुनर्स्थापित कर के दिखाये. सरकार यह तक न कर सकी, क्योंकि आदिवासी गाँवों की शर्तों को वे पूरा कर ही नहीं सकते हैं. फिर उस समय झारखंड आंदोलन खूब गर्म था. सर्वे करने वालों को वहाँ से भागना पड़ा. कोईल-कारो आंदोलन के कारण ही यहाँ के लोगों का मुझ पर भरोसा बना.
क्या आदिवासी पेड़ नहीं काटते? जानवरों का शिकार नहीं करते?
जंगल में रहने के लिए पेड़ तो काटे ही गये हैं, पहाड़ों में खेत बनाये गये हैं. लेकिन जरूरत के हिसाब से, मुनाफाखोरी के लिए नहीं. शिकार करते समय या पेड़ काटते समय आदिवासी प्रार्थना करते हैं, जंगल से क्षमा माँगते हैं, याचना करते हैं कि उन्हें अपनी जरूरतें पूरी करनी है. सूखी लकड़ी भी आदिवासी यूँ ही नहीं काटते. और फिर जिस जमीन पर खेती करते हैं, सृजन करते हैं, उससे उनका संबंध आर्थिक मूल्यों का नहीं रहता. इसीलिए उन्हें लगान-महसूल समझ में ही नहीं आता, जमीन को खरीदना-बेचना तो छोड़ ही दीजिए!
रामनवमी के सात दिन पहले यहाँ ‘सरहुल’ या ‘बा-परब’ का त्यौहार होता है जिसमें साल के फूल की पूजा होती है. यानी पूजा में फूल डालना तो एक बात है, यहाँ तो फूल की ही पूजा होती है. तलवार की पूजा हफ्ते भर बाद रामनवमी में होती है. यहाँ के आदिवासी ‘सिंगबोंगा’ को मानते हैं, जिन्हें भगवान नहीं कह सकते, क्योंकि वे ‘परम हस्ती’ की तरह हैं. तो सिंगबोंगा कहाँ रहते हैं? पेड़ों में रहते हैं, जहाँ से वे सभी कुछ देख सकें. उन्हें किसी भवन के अंदर बंद नहीं किया जा सकता, इसलिए कोई मंदिर या मस्जिद या गुरुद्वारा या चर्च नहीं होता.
जंगल से और पेड़ों से यह संबंध कैसे दिखता है?
अपनी आँख से देख सकते हैं. आदिवासी खेतों में पेड़ खूब मिलते हैं. बल्कि किसी खेत या जमीन का नाम वहाँ खड़े पेड़ों से ही मिलता है, जैसे ‘जामुनटाँड़’, क्योंकि जमीन का कोई खाता या रिकॉर्ड नंबर तो यहाँ होता ही नहीं था. जब अंग्रेज राज में सबसे पहले जमीन को किसी संसाधन की तरह दर्ज किया गया, तब आदिवासियों ने अपनी व्यवस्था को चलाने का नया तरीका ढूँढ़ लिया. खतियान और सर्वे में एक-एक पेड़ का नाम ‘रिमार्क्स’ कॉलम में लिखवाया, कि अमुक जगह पाँच पेड़ आम के हैं और तीन कटहल के. साथ में यह भी लिखवाया है कि इस पेड़ का फल-फूल सारा गाँव ले सकता है, पर लकड़ी उसी परिवार को मिलेगी जिसने वहाँ जमीन जोतनी शुरू की.
यानी ४०-५० साल तक तो पेड़ में फल-फूल रहेगा, तब तक किसी को उसे काटने का अधिकार नहीं है, क्योंकि गाँव वालों का उसके फल-फूल पर अधिकार है. उसके बाद जब वह पेड़ सूखेगा, तब तक दो-एक पीढ़ियाँ गुजर चुकी होंगी, तब उसे काटा जा सकेगा! यह सब आदिवासी समाजों ने ‘सोशल फॉरेस्ट्री’ जैसी परिभाषाएँ बनने के बीसियों साल पहले अंग्रेज राज से लड़ के लिखवाया! जमीन के ऐसे पुराने रिकॉर्ड आपको कहीं और नहीं मिलेेंगे. और आदिवासियों का प्रकृति के साथ ममत्व कितना पुराना है, यह कोई कह ही नहीं सकता.
ऐसे साहसी और स्वतंत्र लोगों को आज पिछड़ा कहा जाता है! कौन कहता है? वे लोग जिनके राजाओं और पूर्वजों ने अंग्रेज राज के सामने घुटने टेके! जिन्होंने या तो खुद जमींदारी की, या जमींदारी की शोषण-आधारित व्यवस्था को अपनाया, उसमें पीढ़ियाँ काटीं, और आज उसी को विकास कह के सभी पर थोपने में लगे हैं!
यह सब आपको समझ कैसे आया?
इसमें दो पक्ष मुख्य हैं. एक हे स्कूल में मिली शिक्षा, जिसमें ‘थिंक’ और ‘एथिक्स’ जैसी कक्षाओं में स्वतंत्र विचार की आदत पड़ गयी. सेंट जेवियर्स कॉलेज में एक बार इतिहास की क्लास में १८५७ का विद्रोह पढ़ाया जा रहा था. मैंने हाथ उठा के पूछा कि इसमें १७८४ के तिलका माँझी के विद्रोह की बात क्यों नहीं की जाती. मुझे कक्षा से बाहर निकाल दिया गया. लेकिन जो पादरी पढ़ा रहे थे, उन्होंने बाद में मुझसे प्यार से बात की. कहने लगे कि उन्हें तो पाठ्यक्रम के हिसाब से ही पढ़ाना होगा. उन्होंने मुझे यह सब पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया, पर यह नसीहत भी दी कि यह सब कक्षा के बाहर करूँ. सो मैं वैसे ही करने लगा.
दूसरा पक्ष १९८३ में अपनी स्वतंत्र वकालत करते समय सामने आया, ‘रिकॉर्ड ऑफ राइट्स’ पढ़ने पर. मैं सवाल-जवाब करने लगा. आदिवासी गाँवों में मेरा आना-जाना तो था ही. फिर जब कोईल-कारो बांध के मामला में मैं आदिवासियों की ओर से अदालत में पेश होने लगा, तब बहुत-कुछ करीब से समझ में आया. लगभग दस महीने तक मैं उस इलाके के गाँवों में ही रह रहा था. सोमवार से शुक्रवार वहीं रहता, शनीचर-इतवार को रांची लौट आता. वहाँ गुजरा समय मेरी समझ बनने में अहम था. मैंने ड्रम बजाना तो सीखा ही था, वहाँ रहते हुए मैं नगाड़ा बजाने लगा, अखरा में सभी के साथ नाचने लगा. कानून और अभिलेख की लिखा-पढ़ी तो कर ही रहा था, वहाँ जीके भी सीख रहा था.
आपके आदिवासी मुवक्किलों की प्रतिक्रिया कैसी थी?
एक वाकया बताता हूँ. शायद १९८५-८६ की घटना है, जब कोईल-कारो बांध का मामला अदालत में चल रहा था. कुछ लोग मुझे ‘वकील होड़ो’ कह के पुकारते थे. मुझे यह अजीब लगा. मैंने उनसे पूछा कि मुझे बात-बात में ‘वकील होड़ो’ क्यों कहते हो. एक बुजुर्ग ने मुझे समझाया कि मैं इसका बुरा न मानूँ, कि इस विशेषण में मेरे लिए अपनापन छिपा है. वर्ना वे लोग मुझे उसी नाम से बुलाते जो वे साधारण वकीलों के लिए रखते थे – ‘वकील सेता’, क्योंकि मुंडारी भाषा में कुत्ते को ‘सेता’ कहा जाता है.
आम तौर पर वकीलों नें आदिवासियों को ठगा है, अंग्रेजों की शह पर और उनके भेजे हुए जमींदार और व्यापारियों की शह पर भी. क्योंकि मेरी वकालत उनका प्रतिनिधित्व करती थी, इसलिए मैं ‘वकील होड़ो’ हो गया, यानी ऐसा वकील जिसकी इंसानियत मरी नहीं हो. इससे बेहतर सर्टिफिकेट मेरे लिए कोई दूसरा नहीं हो सकता है.
इसका प्रमाण भी उन्होंने देखा था. आखिर ५०-६० साल में भी आदिवासियों की जमीन छीन के कोईल-कारो बांध बन नहीं सका है. इस लंबी कानूनी लड़ाई में आदिवासियों के साथ वैसा अन्याय नहीं हो जा सका जैसा भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में होता आ रहा है. झारखंड का आदिवासी समाज इस मामले में बड़ा सजग रहा है. एक बार मेधा पाटकरजी का यहाँ आना हुआ, यह जानने कि यह बांध क्यों नहीं बन सका. मुंडा आदिवासियों ने उन्हें भी एक सीमा के आगे जाने ही नहीं दिया.
क्या आदिवासियों का जमीन से संबंध उनकी सामाजिक व्यवस्था में भी दिखता है?
गाँव बसाने का आदिवासी तरीका भूमि नियोजन का एक सुंदर उदाहरण है. एक गाँव में रहने वाले अमूमन एक ही ‘किली’ के होते हैं. (किली को आप एक प्रकार का गोत्र मान सकते हैं या अंग्रेजी में ‘टोटेम’ कह लीजिए, हालाँकि करीब से देखने पर किली इन दोनों से भिन्न है.) इसी किली के पुरखों ने किसी समय उस गाँव को बसाया हुआ होगा. इस जमीन को ‘देसाउली’ कहा जाता है, यानी जहाँ पहले कोई न रहा हो, जहाँ पेड़ों के पत्ते किसी गद्दे की तरह पड़े हों. (उत्तर भारत के लोग इसे ‘देशवाली’ कहते हैं, जो गलत है. देसाउली मुंडारी भाषा का शब्द है.)
देसाउली में सबसे पहले सिंगबोंगा यानी ईश्वर के रहने के लिए ‘सरना’ तय होता है. फिर घर बनाने के लिए ‘डीह’ बनता है, जो वहाँ की सबसे ऊँची जमीन पर होगा, जहाँ कभी भी बाढ़ न आ सके. फिर ‘अखरा’ बनता है, यानी पूरे गाँव के मिलने की, साथ बैठने की जगह. अखरा को साफ किया जाता है, फिर वहाँ इमली के दो पेड़ लगाये जाते हैं.
गर्मी में इमली की छाँव सबसे ठंडी मानी जाती है. बरसात में इमली के नीचे पानी सबसे बाद में टपकता है. इमली से कई औषधियाँ बनती है, मनुष्य के लिए और पशुओं के लिए भी. इमली पर तरह-तरह के पक्षी आ के बैठते हैं, दूसरे कई वृक्षों की तरह केवल कुछेक पक्षी प्रजातियों से ही उनका संबंध नहीं होता है. और यहाँ कहते हैं कि इमली पर बिजली नहीं गिरती. कोई अखरा कितना पुराना है यह वहाँ के इमली के पेड़ को देख के पता चल जाता है.
आदिवासी समाजों के भीतर सत्ता और राजनीति का व्यवहार कैसे होता है?
लोकतांत्रिक तरीकों से. एक उराँव गाँव का अनुभव बताता हूँ, उस समय का जब मैं हॉकी खेलने के लिए और कोईल-कारो के केस के लिए आदिवासी गाँवों में घूमता-फिरता था. वह गाँव हर तीन साल में अपना ‘पाहन’ यानी मुखिया बदल देता है. सुनने में आया कि उन्होंने अपना पाहन हाल ही में हटा दिया था. मैंने पूछा क्यों हटाया. जवाब मिला कि उसके काम-काज, उसके लक्षण खराब थे. गाँव के लोग अखरा में मिले और उसे हटा दिया, और दूसरा पाहन नियुक्त कर दिया. इनका ‘राइट-टू-रिकॉल’ बहुत पहले से है.
यही नहीं, जब अंग्रेज सरकार ने यहाँ कानून बनाये, तब आदिवासियों ने इसे कानून में दर्ज कराया. यहाँ जो १९०८ का ‘छोटानागपुर टेनेन्सी ऐक्ट’ चलता है, उसमें ‘सेक्शन 74-ए’ है, जिसमें पाहन को चुनने-हटाने के तरीके लिखे हुए हैं. चुनाव कैसे होता है, वह भी खुलेपन का उदाहरण है. इस परंपरा का नाम है ‘पाएरंगी’. इसमें एक हट्टे-कट्टे जवान को चुनते हैं, उसके हाथ में धान पछीटने वाला सूपड़ा दे देते हैं, और फिर उसे दौड़ाते हैं, कुछ ‘हैंडीकैप रेस’ जैसा. जब वह दौड़ते-दौड़ते थक जाता है, तब वह जिसके घर में आसरा लेता है, उसे पाहन बनाया जाता है.
पर इसे भी यूँ ही नहीं नियुक्त करते हैं. पूरा गाँव अखरा में ही रहता है, जब तक सर्वसम्मति से पाहन चुन न ले. वहीं बैठ के खाना बनाते हैं, वहीं खाते हैं, चाहे जितने दिन लग जाएँ. अगर किसी उम्मीदवार को ले कि किसी को आपत्ति है, तो तब तक गाँव वहाँ से उठता नहीं है जब तक उसे मना न ले. उसे दुखी कर के कोई निर्णय नहीं हो सकता. उससे बात कर-कर के उसे मनाना पड़ता है. और तो और, गाँव के कुत्ते भी शांति से बैठे रहते हैं, वहीं पर.
कोई ‘बहुमत-अल्पमत’ नहीं होता, न ‘फर्स्ट-पास्ट द पोस्ट’ ही. जब तक ‘कॉनसेन्सस’ या सर्वसम्मति नहीं होती, तब तक कोई पाहन नियुक्त नहीं होता. चुनाव में इतना जतन करते हैं, पर पाहन हटाने के लिए अखरा में साथ बैठ के निर्णय लेने में जरा देर नहीं लगती. उस पाहन की सत्ता का डर किसी को नहीं होता. किसी भी स्थिति में पाहन अपने लोगों से ऊपर नहीं होता. ऐसा लोकतंत्र कहाँ दिखने में आता है!
आजाद भारत की सरकारों का रुख कैसा रहा है?
स्वतंत्रता के पहले ही इस इलाके की आजादी घटाने की योजनाएँ शुरू हो गयी थीं. कोयला तो निकाला ही जा रहा था. बंगाल में भयानक अकाल पड़ा था १९४२ में. इसका कारण तो यह था कि अंग्रेज सरकार ने अनाज निकाल के दूसरे विश्व युद्ध में लगा दिया था. पर इसके बाद दामोदर नदी पर बांध बना के पानी निकालने की योजना बनने लगी. दामोदर नदी को ‘सॉरो ऑफ बंगाल’ यानी बंगाल का अभिशाप कहा जाने लगा. बाढ़ से बचाव का बहाना बना के १९४८ में दामोदर वैली कॉर्पोरेशन ऐक्ट पास हुआ. बड़े-बड़े बांध बनाने की योजना बनी. खेत और जंगल डूबे दक्षिण बिहार के संथाल आदिवासी इलाकों में (आज का झारखंड), बिजली और सिंचाई गयी मैदानों की ओर, पश्चिम बंगाल की तरफ.
शोषण की नयी व्यवस्था विकास के नाम पर खड़ी की गयी, देश की भलाई के नाम पर. स्वतंत्र आदिवासियों ने न तो विकास माँगा, और न उसके लाभ. किंतु इसकी सबसे बड़ी कीमत उन्हीं ने चुकाई है. यहाँ से कोयला और लोहा और एल्युमीनियम के खनिज निकालने हैं, यहाँ के जंगल काट के लकड़ी निकालनी है, यहाँ बांध बना के दूसरों को सिंचाई और बिजली देनी है. यह सब इसलिए क्योंकि यहाँ के समाज ने शोषण की व्यवस्था नहीं अपनायी, अपनी व्यवस्था बचाने की भयानक कीमत चुकायी.
बल्कि कई मामलों में अंग्रेजों से भी बदतर व्यवहार आजाद भारत की सरकारों ने किया है. अंग्रेज सरकार जमीन के नीचे खनन करती थी. जब १९७२ में कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण हुआ, उसके बाद खुल के ‘ओपन कास्ट माइनिंग’ शुरू हो गयी. मशीनों से जंगल-के-जंगल उड़ा दिये जाने लगे, ऊपर से खोद के खनिज निकाले जाने लगे. जल स्रोतों की शामत आ गयी, साँस लेने के लिए साफ हवा नसीब नहीं रही, पर्यावरण की चौतरफा बरबादी होने लगी. जो इसका विरोध करे, आदिवासियों की सामाजिक सर्वसम्मत
रश्मि कात्यायन के साथ बातचीत अद्भुत है। उस पर एक पूरी किताब, फीचर फिल्म या धारावाहिक नमू होना चाहिए।