हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड भी लूँ कलम को
तो भी फसल काटने को
मिलेगी नहीं हमको।
हम तो जमीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रान्तिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे।
हरा-भरा वही करेंगे मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को।
कल जब फसल उगेगी लहलहायेगी
मेरे न रहने पर भी हवा से इठलायेगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होंने बीज बोया था उन्हीं के चरन परसेगी।
काटेंगे उसे जो, फिर वही उसे बोयेंगे
हम तो धरती के नीचे दबे सोयेंगे
(क्रांती, प्रगती, उन्नती, प्रबोधन ह्या सर्वांमधील कवीची भूमिका काय असते वा असावी ते फार स्पष्ट शब्दांत सांगणारी सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ह्यांची ही कविता त्यांच्या प्रतिनिधि कविताएँ ह्या संग्रहालून घेतली आहे.)