पार्श्वभूमि
- तीन स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के ३० से अधिक साल पूरे हो गए हैं। साल १९९२ में संविधान में संशोधन के साथ इस पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत हुई थी।
- ७३वें संशोधन की वजह से आदिवासी क्षेत्रों (अनुसूचित क्षेत्रों) में पंचायती राज के विस्तार और वन अधिकारों के लिए कानून बने।
- अपनी टिप्पणी में सी आर बिजॉय लिखते हैं कि लोकतंत्र को बिना मजबूत किये सत्ता के विकेन्द्रीकरण की ३० वर्षों से अधिक की यह कहानी आशा से निराशा की तरफ जाती है।
भारत में लोकतंत्र की जड़ों को और मजबूत करने के लिहाज से साल १९९२ को मील का पत्थर माना जाता है। तीन दशक पहले इसी साल संविधान में ७३वां (पंचायती राज के लिए) और ७४वां (नगरपालिका और शहरी स्थानीय निकायों के लिए) संशोधन किया गया था। आज़ादी के बाद राजनीतिक लोकतंत्र को आखरी पायदान तक ले जाने की दिशा में यह पहला ऐतिहासिक कदम था। इन संशोधनों का मकसद संविधान के अनुच्छेद ४० को हकीकत में बदलना था। संविधान का अनुच्छेद ४० नीति निदेशक सिद्धांतों में से एक सिद्धांत को समेटे हुए है और इसमें राज्य को ग्राम पंचायतों के गठन और पावर देने का सुझाव दिया गया है। इसमें कहा गया है कि राज्य न केवल ग्राम पंचायत को संगठित करे बल्कि इतनी शक्ति और अधिकार दे कि वे स्वशासन की एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें।
लेकिन सामंती सोच वाले शासक वर्ग को ये भरोसा करने में चार दशक लग गए कि लोग खुद से खुद पर शासन कर सकते हैं। दरअसल, तब शासक वर्ग, कमांड और कंट्रोल लाइन पर बहुत ज्यादा निर्भर था। स्वतंत्रता के वक्त भारत को औपनिवेशिक प्रशासन के तरीके विरासत में मिले थे। इन तरीकों को ईजाद ही इसलिए किया गया था कि एक गुलाम देश और उसके लोगों पर आसानी से शासन किया जा सके।
आजादी के संघर्ष में यह खयाल भी शामिल था कि भविष्य में शासन करने के इन तरीकों का नामोनिशान मिटा दिया जाएगा।
अतीत की बातें
प्राचीन काल से ही भारत में ‘लोकतांत्रिक’ संस्थाओं का लंबा इतिहास रहा है। साझा संप्रभुता के आधार पर जुड़े इस समाज में, शक्ति और अधिकार का बंटवारा कुछ ऐसा रहा है कि गांव, स्वशासी ग्राम गणराज्य के रूप में कार्य करते रहे हैं।
भारत के कार्यवाहक गवर्नर-जनरल (१८३५-३८) चार्ल्स टी.